
लघुकथा अपने लघु कलेवर तथा सशक्त भाषा शैली द्वारा गंभीर चिंतन की जन्मदात्री बनती है। लघुकथा में विचार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। उसका उद्देश्य विसंगतियों और विडंबनाओं को प्रभावशाली ढंग से उभारना होता है। वर्तमान समय में अनेक ऐसी लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं, जो संवेदना, शिल्प तथा भाषा तीनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट हैं। किसी भी विधा में लिखते समय सृजन की मात्रा से अधिक उसकी गुणात्मकता तथा सार्थकता महत्त्व रखती है। जिस रचनाकार ने इस मर्म को समझ लिया वह श्रेष्ठ रचनाकार बन सकता है।
मैंने जिन दो लघुकथाओं ने मुझे लेखनी चलाने के लिए विवश किया वे हैं- ‘अदालत में हिंदी’ ऋचा शर्मा और ‘अपना खून’ रमेश कुमार संतोष।
ऋचा शर्मा की ‘अदालत में हिंदी’ स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी की दोयम दर्जे की स्थिति को उजागर करने में नितांत सफल रही है। स्वाधीनता संग्राम के समय वह हिंदी जिसकी एक पुकार पर पूरा हिंदुस्तान एक सूत्र में बँध गया, स्वतंत्रता के पश्चात।त् सहसा वह इतनी दीन क्यों हो गई। अंग्रेज तो चले गए; लेकिन हमें मानसिक गुलामी दे गए। लेखिका ने हिंदी की दयनीय स्थिति के लिए उत्तरदायी कारणों को बड़े रोचक ढंग से अभिव्यक्त किया है। बचपन से ही बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाना, युवाओं का अंग्रेजी को स्टेट्स सिंबल समझना, हिंदी में रोजगार के अवसरों की कमी की दुहाई देना तथा हिंदी से मुँह चुराने के बहाने ढूँढना, हमारी आदत बन चुकी है। लघुकथा का आरंभ नाटकीय ढंग से होता है। हिंदी अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाती है तथा अपना केस स्वयं लड़ती है। हिंदी अपने पक्ष में तमाम दलीलें देती है; परन्तु अदालत की कार्यवाही गवाहों पर चलती है और हिंदी के पक्ष में गवाही देने वाला कोई नहीं मिलता। स्वतंत्रता- संग्राम में हिंदी का योगदान तथा हिंदी के प्रति उपेक्षित मानसिकता को प्रभावशाली ढंग से चित्रित करने में लेखिका पूर्ण सफल रही हैं ।
रमेश कुमार संतोष की लघुकथा ‘अपना खून’ संवेदना के स्तर पर उद्वेलित करती है। पुत्र मोह में जकड़ी प्राचीन मानसिकता आज भी नवजात बेटी का स्वागत करके के लिए तत्पर नहीं है। हमारे समाज की विडंबना है कि आज भी बेटी के जन्म पर उदास चेहरे ही उसका स्वागत करते हैं; क्योंकि मन में आस तो बेटे की होती है; इसलिए एकाएक बेटी का स्वागत कर पाना परिवार ही नहीं स्वयं माँ के लिए भी कठिन हो जाता है। उस पर यदि एक बेटी पहले से ही हो और दूसरी भी बेटी ही हो जाए, तो उदासियों के रंग और भी गहरे हो जाते हैं। नाते- रिश्तेदार भी संवेदना जताने लगते हैं- लड़की वह भी दूसरी… हाय, क्या लिखा है इसके भाग्य में… जैसे शब्द प्रसूता को गहरे दुख में डुबो देते हैं; परंतु धीरे धीरे स्थिति सामान्य होने लगती है और बच्ची को पिता, दादी तथा अन्य रिश्तेदार गोद में लेकर दुलारने लगते हैं। लघुकथा समाज की उस मानसिकता को प्रभावी ढंग से उजागर करती है, जिसके कारण हम बेटी के जन्म पर खुशियाँ मनाना तो दूर, उसके प्रति अपनी ममता को भी निष्ठुर बना लेते हैं। हमें यह स्वीकार करने में समय लगता है कि यह हमारा अपना ही खून है? बेटी के जन्म पर दुख मनाने से संबंधित अनेक कहानियाँ और लघुकथाएँ पढ़ी हैं; परंतु यह लघुकथा अपने चरम पर कुछ अलग ढंग से पहुँचती है। ऑपरेशन थिएटर में नवजात बच्ची की माँ की आँखों से अविरल बहती हुई अश्रुधारा को देखकर डॉक्टर उसे बेटी के बदले बेटा लाकर देने का प्रस्ताव करती है। इतना सुनते ही माँ की सोई हुई ममता जाग जाती है और वह उस बच्ची को अपनी छाती से लगाकर कहती है- ‘‘यह मेरा खून है.. मेरा अपना खून… इसे मैं दूसरे को नहीं दे सकती।’’ लघुकथा हमें संवेदना के स्तर पर झिझोड़कर यह प्रश्न उपस्थित करती है कि हम बेटियों के प्रति इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हैं…जन्म लेने वाली अबोध बच्ची का क्या अपराध है?
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1-अदालत में हिंदी/ डॉ.ऋचा शर्मा की
अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।
मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब! – उसने कहा।
अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?
नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत विदेशियों से जीत गया, तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?
ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?
जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, तब मैंने कमान सँभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएँ मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं, तब इसे सुनकर नौजवान देश के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर देते थे। मैं सबकी प्रिय थी, कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो; लेकिन अब मेरे अपने देश के माता- पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं, महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है, जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ? हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए, हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएँगे, परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।
अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएँ- बाएँ झाँकने लगे। उन्होंने आदेश दिया – गवाह पेश किया जाए।
हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।
नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।
हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में नजर दौड़ाई, बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।
गवाह के अभाव में मुकदमा खारिज कर दिया गया।
-0-डॉ. ऋचा शर्मा, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001
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2- अपना खून/ रमेश कुमार संतोष
लड़की होने के समाचार ने सबके चेहरों पर उदासी ला दी। सब एक दूसरे को उदास चेहरे से देख रहे थे । फोन की घण्टियाँ बजने लगी ।
लड़की…वह भी दूसरी….वह भी आप्रेशन से…इतनी तकलीफ़ के पश्चात फिर से लड़की…..,,,!!
‘‘हाय … क्या लिखा है…. इसके भाग्य में… खैर जो हो गया उसे स्वीकार करो… आखिर किया भी क्या जा सकता है…. भगवान के आगे किस की चलीं है..” आश्वासन के शब्द उसे ओर रुला जाते…।
आप्रेशन थियेटर में जब माँ को पता चला, तो उसकी आँखों में जैसे गंगा यमुना बह गई हो… डाक्टर भी थोड़ी देर के लिए खामोश हो गई ।
फिर धीरे – धीरे सब सामान्य होने लगे…. लड़की को पिता ने उठाया… फिर दादी ने…वह हाथ पाँव हिलाकर एकटक दादी को देख रही थी… जैसे कह रही हो..
“मेरा कसूर क्या है…”
अचानक दादी के मुँह से निकला- “देख कितनी प्यारी है….”
वह फिर से पिता की गोद में आ गई। फिर अस्पताल में आए दूसरे रिश्तेदारों की गोद में… ।
लड़की के रोने पर झट से दादी ने उसे उठाया फिर अपने बेटे से बोली- “जा शहद लेकर आ… इसे भूख लगी है… देख.. देख जीभ निकाल रही है…।
आप्रेशन थियटर में लड़की की माँ अब भी रोए जा रही है… डॉक्टर ने उसके आँसू देखकर सांत्वना देते हुए उसे कहा-
” क्या कोई आर्थिक समस्या है..?”
“नहीं .. ऐसी कोई बात नहीं…”
“फिर यह सब क्यों…?”
“कुछ नहीं.. बस यूँ ही. लड़का हो जाता तो…!”
लड़की को माँ की गोद में दिया गया. … उसे देख कर उस के आँसू ओर ज्यादा बहने लगे…।
माँ को रोते देख कर डॉक्टर ने उसे एक सुझाव दिया- “तुम को लड़का चाहिए…?”
“जी अगर हो जाता तो? “
“लाओ इसे… मुझे दे दो… मैं तुम्हें लड़का लाकर देती हूँ।”
“कहाँ से?”
“वह दूसरी पेशेंट है न… उसको लड़की चाहिए. उसके…दूसरा बेटा हुआ है ..मैं उस से बात करती हूँ।”
“न… नहीं… ऐसा नहीं हो सकता…” माँ ने बेटी को अपनी छाती से लगा लिया।
“यह मेरा खून है. मेरा अपना खून. इसे मैं दूसरे को नहीं दे सकती।”
माँ लड़की को चूमने लगी। उसकी आँखों से आँसू अब भी बह रहे थे। सब उसकी ममता के आगे नतमस्तक थे। अपना खून अपना ही होता है वह चाहे लड़का हो या लड़की….।
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