
लघुकथाओं से मेरा परिचय कब हुआ, ठीक-ठीक बता नहीं सकती । जब बहुत छोटी थी, तब एक बार माँ ने एक चित्र कथा से परिचय करवाया था । हिन्दी- व्याकरण पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर पिता- पुत्र और टट्टू के चित्र बने हुए थे । माँ ने चित्र दिखाते हुए हम दोनों भाई-बहन से कहा था कि इन सारे चित्रों के पीछे एक कहानी है। अब तुम दोनों को बताना है कि कहानी क्या है ? हमने बहुत कोशिश की करीब- करीब अंत तक पहुँचे भी, फिर भी सही निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सके । तब माँ ने विस्तार से हरेक चित्र का वर्णन करते हुए कथा के साथ-साथ कथासार भी बताया । सार था कि सुनो सबकी, करो मन की । उस दिन छोटी-छोटी कहानी व चित्रों के प्रति जिज्ञासा ऐसी बढ़ी कि अखबारों,पत्रिकाओं आदि के कोने ढूँढती रहती थी; लेकिन तब लघुकथाओं का प्रचलन था नहीं । कहीं- कहीं कोई सूक्ति वाक्य ,चुटकुले , शायरी या गजल दिख जाते थे । हमारा बाल मन उन सबकी समझ नहीं रखता था, तो हम बस सरसरी निगाह से देखकर निकल जाते; पर उत्कंठा तो शेष रह जाती थी, मन में कुछ ऐसा पढ़ने की, जो आसानी से समझ में भी आए और अंततः कुछ निष्कर्ष भी हाथ आए ।
उन दिनों हमारे यहाँ एक शिक्षक की पुस्तकों की दुकान थी । वे किराए पर भी पुस्तकें दिया करते थे । बड़े भैया मोटे-मोटे उपन्यास अपने लिए लाया करते थे जो कि कोर्स की किताबों के बीच छुपाकर पढ़ते थे । एक दिन हमने देख लिया, तो माँ को बता देने की धमकी दे डाली । फिर क्या था, चुप रहने के बदले में हमें कॉमिक्स मिलने लगे । दुकान की सारी कॉमिक्स एक हफ्ते में ही हमने पढ़ डालीं । फिर नंदन, चंपक ,बाल उपन्यास, प्रेमचंद की कहानियाँ आदि का सिलसिला शुरू हुआ । कॉलेज जाने पर धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान से परिचय हुआ । उनमें भी लघुकथाएँ देखने को नहीं मिलती थी । अखबारों में अधिकतर खलील जिब्रान की दो-चार पंक्तियों वाली लघुकथाएँ देखने को मिल जाया करती थीं । जब हंस और कथादेश जैसी पत्रिका हाथ आई ,तो उनमें लघुकथाएँ दिखने लगीं । पत्रिका हाथ में आते ही सबसे पहले लघुकथाओं की ओर लपकती थी ।
छोटी और सारगर्भित होने की वजह से लघुकथा देर तक मन मस्तिष्क में छायी रहती थी । मेरी तरह कितने ही पाठक रहे होंगे ,जिन्हें लघुकथा से खास लगाव रहा हो, इसके बावजूद , लघुकथा लेखन को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा था । कहानियों , आलोचनाओं, विवेचनाओं , समीक्षाओं के बीच किसी कोने में सहमी, दुबकी- सी उपस्थिति होती थी लघुकथाओं की; लेकिन विगत कुछ वर्षों से सुकेश साहनी , रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ , कमल चोपड़ा , डॉ अशोक भाटिया , डॉ राम कुमार घोटड आदि कई लेखकों ने लघुकथा की तरफ न केवल ध्यान खींचा है; बल्कि इस अमूल्य विधा को कई माध्यमों से सहेजने का भी काम कर रहे हैं । अब तो पॉकेट फिल्म्स प्रोडक्शन भी लघुकथाओं पर आधारित फिल्में बनाकर इस विधा की पहुँच को साधारण लोगों तक सुलभ कराया है ।
जहाँ तक मेरी पसंद की लघुकथाओं का प्रश्न है, तो यह बड़ा ही कठिन है । मुझे मंटो की सारी लघुकथाएँ अच्छी लगती हैं । कुछ लेखकों की रचनाएँ पढ़ने के बाद सालों तक याद रह गई हैं । जैसे सुकेश साहनी की ग्रहण और आधी दुनिया, रामेश्वर कम्बोज हिमांशु की गंगा- स्नान , ऊँचाई ओर नवजन्मा, डॉ अशोक भाटिया की स्त्री कुछ नहीं करती , कमल चोपड़ा की वैल्यू, योगराज प्रभाकर की चश्में, भगवान वैद्य प्रखर की कठपुतली उर्मिल थपलियाल की मुझमें मण्टो , मार्टिन जॉन की उसके हिस्से की रोटी, विनय पाठक की सीख आदि । इतनी सारी महत्त्वपूर्ण और रोचक रचनाओं के बीच सिर्फ दो रचनाओं का चुनाव करना घास के ढेर में सुई ढूँढने के बराबर है । फिर भी ईमानदारी से कहूँ, तो इस समय मेरी नजर में दो लघुकथाएँ ऐसी हैं जिसने मेरी स्मृति पटल पर बड़े ही अधिकारपूर्वक अपना अमिट स्थान ग्रहण किया हुआ है, वे हैं, अंतोन चेखव की लघुकथा : कमजोर और विष्णु नागर की लघुकथा : चौथा आदमी ।
अंतोन चेखव उस समय के लेखक रहे हैं जब समाज मूलतः सामंतवाद और भीषण अकाल के दौर से गुजर रहा था । यह ऐसी कालजयी लघुकथा है जो आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी तब थी । कई जगह इसे लघुकथा न मानकर लोककथा कहा गया है। लघुकथा , मालिक और उसके बच्चों को पढ़ाने वाली निर्धन शिक्षिका के बीच होने वाले संक्षिप्त संवाद पर आधारित है। कथावाचक शिक्षिका जूलिया से जब कहता है- आज तुम्हारा हिसाब कर देता हूँ, तभी दाता और याचक की भूमिका तय कर दी जाती है । उसके बाद जो राशि तय हुई थी उससे कम राशि की बात मालिक इतना जोर डाल कर बोलता है कि वह बहुत ही हल्के प्रतिरोध के बाद मान लेती है । यह मालिक का पहला प्रहार है याचक को कमजोर करने का । उसके बाद वह एक-एक करके उसकी उन गलतियों को उसके सामने प्रस्तुत करता है, जो उसने जानबूझकर किए ही नहीं। वह इतनी कमजोर पड़ जाती है कि अपनी दो महीने की मेहनत की कमाई का शोषण होते हुए देखती रहती है; लेकिन प्रतिरोध नहीं कर पाती है; क्योंकि वह अपनी नौकरी नहीं गँवाना चाहती । अंत में कथावाचक कहता है – “मैं सोचने लगा कि ताकतवर बनना कितना आसान है।”
गरीबी ऐसा अभिशाप है जो हमारे भीतर के आत्मविश्वास को न केवल क्षीण कर देती है अपितु प्रतिरोध करने की शक्ति का भी दमन करती है । आज भी हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहाँ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमारे प्रतिरोध करने के सभी रास्ते धीरे-धीरे बंद किए जा रहे हैं । एक तरफ बेरोजगारी इतनी चरम पर है कि न्यूनतम मासिक वेतन पर उच्च शिक्षित वर्ग काम करने पर मजबूर हैं । युवा वर्ग हर रोज एलिमिनेशन के दबाव में काम कर रहा है, तो दूसरी तरफ हमारे समक्ष देश व समाज का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जा रहा है, जो मिथ्या है । इसके बावजूद कोई प्रतिरोध का स्वर नहीं उठता। जो मुखर होकर विरोध करते हैं, उसकी कोई सुनता भी नहीं। सभी के लिए अपनी चिंता ही सर्वोपरि हो गई है । आज के समय में प्रतिस्पर्धा इतनी चरम पर है कि समाज चेतनाशून्य न होते हुए भी संवेदनाशून्य होता जा रहा है। लघुकथा का सबसे खूबसूरत तत्व यह कि अंतोन चेखव अंत में जूलिया की चेतना को सजग करते हैं। वे कहते हैं कि क्या तुम्हें मालूम है कि मैंने तूम्हें लूटा है। यह एक वाक्य यह दर्शाता है कि शोषक चाहे जितना भी निर्मम हो जाए, उसके भीतर मानवीय संवेदना अब भी शेष है । आज हमें ऐसे ही चेखव की जरुरत है जो हमारे भीतर चेतना का संचार कर सके , हमारी मानवीय संवेदना को मरने से बचा ले ।
दूसरी लघुकथा जो मुझे पसंद है वह है विष्णु नागर की लिखी लघुकथा : चौथा आदमी । यह लघुकथा कथादेश के मई 2022 अंक में प्रकाशित हुई थी । संवेदनाशून्य होते समय और मानवीय विवशता को बहुत ही कम शब्दों में बड़े ही संतुलित एवं रोचक तरीके से प्रस्तुत करती है। यह लघुकथा हमें सोचने पर विवश करती है कि क्या हम सब दिन-ब-दिन अपने-अपने शव अपने ही कंधे पर ढोने के लिए अभिशप्त नहीं होते जा रहे हैं ? आज किसी के पास किसी दूसरे के लिए समय नहीं है । गाँवों कस्बों के अनगिन लोग हर दिन महानगरों के विशाल जबड़े मे समाते जा रहे हैं । खेत-खलिहान हरे-भरे मैदानों को छोड़कर छोटे-छोटे डिब्बों में बंद होते जा रहे हैं । बच्चों के जीवन से आउटडोर गेम लगभग गायब हो चुके हैं । नतीजा मानसिक बीमारियों का बढ़ता ग्राफ । एक बेहतर जीवन जीने की जिद, हमें केवल भौतिक सुखों के अधीन करती जा रही है। हम जी नहीं रहे बस भाग रहे हैं । कहाँ और क्यों ये भी नहीं मालूम ।
हरेक लेखक का यह दायित्व होता है कि वह समय और समाज को लिखे । मुझे इस लघुकथा की यही सबसे बड़ी बात यही लगती है कि लेखक ने इतने कम शब्दों में समय और समाज के विस्तृत फलक को बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया है ।
1-कमजोर /अंतोन चेखव
आज मैं अपने बच्चों की अध्यापिका यूलिमा वार्सीयेव्जा का हिसाब चुकता करना चाहता था।
”बैठ जाओ, यूलिमा वार्सीयेव्जा।” मेंने उससे कहा, ”तुम्हारा हिसाब चुकता कर दिया जाए। हाँ, तो फैसला हुआ था कि तुम्हें महीने के तीस रूबल मिलेंगे, हैं न?”
”नहीं,चालीस।”
”नहीं तीस। तुम हमारे यहाँ दो महीने रही हो।”
”दो महीने पाँच दिन।”
”पूरे दो महीने। इन दो महीनों के नौ इतवार निकाल दो। इतवार के दिन तुम कोल्या को सिर्फ सैर के लिए ही लेकर जाती थीं और फिर तीन छुट्टियाँ… नौ और तीन बारह, तो बारह रूबल कम हुए। कोल्या चार दिन बीमार रहा, उन दिनों तुमने उसे नहीं पढ़ाया। सिर्फ वान्या को ही पढ़ाया और फिर तीन दिन तुम्हारे दाँत में दर्द रहा। उस समय मेरी पत्नी ने तुम्हें छुट्टी दे दी थी। बारह और सात, हुए उन्नीस। इन्हें निकाला जाए, तो बाकी रहे… हाँ इकतालीस रूबल, ठीक है?”
यूलिया की आँखों में आँसू भर आए।
“कप-प्लेट तोड़ डाले। दो रूबल इनके घटाओ। तुम्हारी लापरवाही से कोल्या ने पेड़ पर चढ़कर अपना कोट फाड़ डाला था। दस रूबल उसके और फिर तुम्हारी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वान्या के बूट लेकर भाग गई। पाँच रूबल उसके कम हुए… दस जनवरी को दस रूबल तुमने उधार लिये थे। इकतालीस में से सताईस निकालो। बाकी रह गए चौदह।”
यूलिया की आँखों में आँसू उमड़ आए, ”मैंने सिर्फ एक बार आपकी पत्नी से तीन रूबल लिये थे….।”
”अच्छा, यह तो मैंने लिखा ही नहीं, तो चौदह में से तीन निकालो। अबे बचे ग्यारह। सो, यह रही तुम्हारी तनख्वाह। तीन,तीन… एक और एक।”
”धन्यवाद!” उसने बहुत ही हौले से कहा।
”तुमने धन्यवाद क्यों कहा?”
”पैसों के लिए।”
”लानत है! क्या तुम देखती नहीं कि मैंने तुम्हें धोखा दिया है? मैंने तुम्हारे पैसे मार लिये हैं और तुम इस पर धन्यवाद कहती हो। अरे, मैं तो तुम्हें परख रहा था… मैं तुम्हें अस्सी रूबल ही दूँगा। यह रही पूरी रकम।”
वह धन्यवाद कहकर चली गई। मैं उसे देखता हुआ सोचने लगा कि दुनिया में ताकतवर बनना कितना आसान है।
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चौथा आदमी/ विष्णु नागर
काफी देर हो चुकी थी । कंधा देने वाला चौथा आदमी नहीं मिल रहा था । बाकी तीनों ने आते-जाते अनेक लोगों से मदद माँगी । किसी के पास समय नहीं था । देरी तो अब इन तीनों को भी होने लगी थी। ये भी अब उब और थक चुके थे । जाना चाहते थे ।
देरी सबसे ज्यादा लेकिन मुर्दे को हो रही थी । जीवन में हर काम वह फटाफट निबटाने में विश्वास रखता था । उसकी टेबल पर कभी कुछ भी पेंडिग नहीं रहता था। अब उसे ही अंतिम विश्राम स्थल पर ले जाने में देरी हो रही थी। उसका आगे का कार्यक्रम गड़बड़ा रहा था ।
वह भाँप चुका था कि दस-पाँच मिनट में चौथा आदमी नहीं आया, तो ये तीन भी खिसक लेंगे । वह फटाफट नीचे उतरा और उसने कहा -चलो ।
इन तीनों के पास उसे देखने, सोचने, डरने आश्चर्य करने और यहाँ तक कि उसे धन्यवाद देने तक का समय नहीं था ।
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