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Channel: मेरी पसन्द –लघुकथा
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परिस्थितियों में सकारात्मकता की तलाश/

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सफल मनुष्य उसे ही कहा जाता है जो विषम परिस्थितियों में अपने को अनुकूल बना लेता है। यह बहुत दुष्कर कार्य है। हर किसी के बलबूते की बात नहीं। लेकिन प्रयास से सबकुछ संभव हो सकता है। आदमी को उस प्रयास की ओर अग्रसर रहने की अपार शक्ति देती है अश्विनी कुमार आलोक की लघुकथा – ‘तीर्थयात्रा।’
‘तीर्थयात्रा’ में बुजुर्ग माता – पिता को घर में साथ रह रहे बहू-बेटे में कमियाँ नजर आती हैं, पर उन्हें दूर रह रहे अपने दूसरे बहू-बेटे अच्छे लगने लगते हैं। दूर रहने वाले बेटे की दौलत भी उन्हें आकर्षित करती है, वहीं घर में रहने वाले बेटे की आय के प्रति तरह – तरह की शंकाएँ उत्पन्न होने लगती हैं। निकट से दुराव और दूर रहने वाले से लगाव जैसी समस्याओं ने वर्तमान समय में पारिवारिक सद्भाव को विखंडित  कर दिया है। अनेक परिवारों में वयस्क पीढ़ियाँ इसे अपनी नियति मानकर तनाव और अवसादों में जीने को विवश हैं। वहीं बुजुर्ग पीढ़ियां संकीर्ण अपेक्षाओं की दलदल में फँसकर सही – गलत के निर्णय करने की भूल करके परिवार में कड़वाहटें ला रही है। लघुकथाकार ने समाज में नित्य-प्रतिदिन संवादहीनता के आवारण में सिमटी हुई, इस तरह की समस्या को केवल उजागर ही नहीं किया है बल्कि इससे निकलकर आत्मिक प्रसन्नता की खुशबू को भी बिखेरा है। लघुकथाकार ने टूट रहे परिवार को जुड़ते हुए दिखाया है। संबंधों में घट रही विश्वसनीयता पर आत्मचिंतन करने को विवश  किया है। छोटे बेटे द्वारा यात्रा के टिकट भेजकर तीर्थयात्रा के नाम पर अपने माता- पिता को शहर में अपने पास बुलाने की चेष्टा, पर्यटन का प्रलोभन आदि छोटे बेटे के शहरीकृत और संकुचित स्वांग का परिचायक है। छोटे बेटे द्वारा सुपात्रता सिद्ध करने की कुत्सित कोशिश तब समझ में आती है जब बड़े बेटे की बहू तीर्थयात्रा के दौरान खर्च के लिए उन्हें अपनी जमापूंजी के सौ रूपये उनके हाथों में देना चाहती है। यहाँ बड़े बेटे और उसकी बहू में दिखावे का आडंबर नहीं,हृदय की आत्मीयता का विस्तार है। मां और पिता की बारी – बारी से चेतना लौटती है और वे जीवन में सभी सुख -दुख में साथ रहने वाले बहू-बेटे की अहमियत् को समझ लेते हैं। कथा का ऐसा अंत मर्मस्पर्शी है। यह पाठक के हृदयों को झंकृत ही नहीं, बल्कि हौले से बहुत देर तक स्पंदित करने की क्षमता रखती है। यह इस लघुकथा की सबसे बड़ी गुणवत्ता है। लघुकथाकार ने सृजन की लघु काया में कथा तत्त्व का विशाल आँगन बनाया है, जहां पात्रों और परिवेश के अनेक चित्रों का भी दिग्दर्शन होता है। यह विशेषता लघुकथा को दमदार बनाने के लिए पर्याप्त है।‘तीर्थयात्रा’ लघुकथा लेखन क्षेत्र की नज़ीर बनने और हिंदी साहित्य में  विधा को वाजिब हक दिलाने की पूर्ण क्षमता रखती है। समय के साथ मान्यताओं में परिवर्तन अस्वाभाविक नहीं। पारिवारिक विघटन का दोष नयी पीढ़ियों पर थोपते हुए उन्हें बुजुर्गों की उपेक्षा का अपराधी बतानेवाले समाजहितैषियों को इस लघुकथा ने विमर्श का एक अलग विषय प्रदान किया है।संबंधों को समझने और बचाये रखने की सकारात्मकता एवं पुष्ट शिल्प इस लघुकथा की विशेषता है। माता-पिता भी अपनी मान्यताएँ बदलें और घर को तीर्थ बनाने की आंतरिक यात्रा पर निकलें,इस लघुकथा का यह प्रबल सौष्ठव अन्यतम और आह्लादकारी है। ऐसी लघुकथाएँ कम ही लिखी गई हैं।

दूसरी लघुकथा है युगल की ‘पिता।’ लघुकथाकार युगल ने पिता की उन संवेदनाओं पर कलम चलायी है, जिन पर संभवतया ध्यान अभी तक किसी अन्य लघुकथाकार का नहीं गया है। जरूरतों को पूर्ण करने की व्यग्रता में जीता हुआ पिता संतानों की जिम्मेदारी का बोझ ढो – ढो कर कभी थकता नहीं। पर वह उसके भविष्य की चिंता को लेकर घुलता अवश्य है। संतति की उन्नति की दिशा बदलने पर विकल होता है। संतति की गलत संगति और उसके खराब आचरण से क्षुब्ध होकर पिता ज्वालामुखी भी बन जाता है। जीवन के उत्तरार्द्ध में वह ठंडा होना भी जानता है। बर्फ सा पिघलकर अपने को तिरोहित भी कर देता है। पिता जो भी करता है उसमें संतति के लिए अनुराग होता है। असीम प्रेम।

लघुकथा में पिता अपने छोटे पुत्र के गलत कार्यो में संलिप्त होने और मैट्रिक की परीक्षा में तीसरी बार फेल होने पर दुखी होकर बच्चे जैसा रो पड़ता है। पुत्र के भटकाव से दुख इतना बढ़ जाता है कि कई दिनों के बाद रस्सी लेकर अपनी गर्दन में लपटते हुए अपने उसी पुत्र से कहता है – ‘‘ मुझे शहतीर के हुक से लटका दे। फाँसी लगा दे कि मेरा संताप मिट जाये।’’ पिता के रौद्र रूप के सामने वयस्कता की दहलीज पर कदम रखने को आतुर पुत्र घर छोड़कर भाग जाता है और कभी नहीं लौटता है। पिता भी उसकी चिंता कभी नहीं करता। पर जब वे मृत्यु के निकट पहुंचता है तो अपने उस पुत्र के लिए बेचैन हो उठता है। घर में लगे फोन की घंटियाँ सुनकर उसके चेहरे की रौनक बढ़ जाती है। उसे लगता है कि उसके उसी पुत्र ने फोन किया होगा। घर का बड़ा पुत्र जब उसे उसका फोन नहीं होने की जानकारी देता है तो उनका मन हर दिन कसैला होता रहता है। किशोरावस्था में घर छोड़कर भागे हुआ पुत्र को जब अक्ल आती है तब वह अपने पिता को अपना मुँह दिखाना भी मुनासिब नहीं समझता, लेकिन पिता उसे देखने के लिए बेचैन रहता है। और उसी बेचैनी में उसके प्राण छूट जाते हैं। प्राण निकलने के पूर्व पिता अपने बड़े लड़के को कहता है – ‘‘वह आए,तो उस से कहना , मुझे माफ कर दे। घर लौट आये।’’

पिता का यह पश्चाताप पुत्र के खो जाने पर है। लघुकथा के मध्य में भी पिता पुत्र को खोता है। पुत्र का सुपुत्र न बनकर कुपुत्र बनना, पिता से पुत्र का खोना है। जहां पिता बच्चों की तरह खिलौने के टूटने पर रो पड़ता है। टूटे हुए खिलौने को नहीं अपनाने की जिद पर अड़ता है और बाद में उसे ही पाने के लिए अपनी नींद को गवां बैठता है। पुत्र के प्रति पिता के लगाव को अनूठे अंदाज में परोसा गया है। कथ्य को यथार्थ की घटनाओं से ऐसे जोड़ा गया है कि वह असाधरण बन गया है।  लघुकथा का प्रारंभ आलेख जैसा हुआ है।  संवाद ने रोचकता को बढ़ाता चला गया है । और अंत की मार्मिकता लघुकथा को श्रेष्ठ बना देती  है। इस लघुकथा के दमदार शिल्प और कथ्य की विशाल भावभूमि हृदय को आंदोलित करने और मस्तिष्क को झकझोरे बिना नहीं रहते। अपनी विधा को पहचान दिलाने की पर्याप्त क्षमता समेटे हुए है यह लघुकथा। 

संपर्क : आनंदबाग मुहल्ला, महनार, वैशाली, बिहार,  पिन – 844506, मोबाइल – 9939460183

लघुकथाएँ

1-तीर्थयात्रा : अश्विनी कुमार आलोक

बाबूजी सेवानिवृत हुए तब से दस बरस बीत गये और इस दरम्यान घर की माली हालत बिगड़ती गयी। बड़े बेटे की छोटी-सी नौकरी सिर्फ देखने को लिए है। उसकी अन्य आमदनियों के कई स्रोत हैं। यह न सिर्फ उन्हें लगता था. बल्कि दूसरे शहर में रहते छोटे बहू-बेटे भी बार-बार फोन पर माँ-बाबूजी के कान भरते रहते थे। बड़ा बेटा किसी प्रकार अपने बच्चों एवं माँ बाबूजी समेत दसेक लोगों के परिवार का भरण-पोषण कर रहा था। अन्य खर्च भी संभाले नहीं संभल रहे थे। पर, माँ-बाबूजी अपनी मान्यता पर अड़े थे कि बड़े बेटे बहू के जमा धन उनकी स्वार्थ-प्रवृत्ति के द्योतक हैं। छोटे बेटे ने शहर से यात्रा के टिकट भेजवा दिये। लंबी यात्रा में तीर्थ और अन्य शहरों के रोमांचक पर्यटन सम्मिलित थे। माँ के गुरुर ही नहीं छोटे बेटे के प्रति बढ़ते अपनत्व का भी कारण बन रही थी यह यात्रा। माँ-बाबूजी बड़े बेटे से कोई उम्मीद भी नहीं रख रहे थे। पेंशन की राशि रास्ते के खर्च के लिए पर्याप्त थी। शेष खर्च के लिए छोटे बेटे की सुपात्रता के प्रति उन्हें संदेह नहीं था। अहले सुबह बंधे हुए सामान के साथ माँ-बाबूजी निकल ही रहे थे कि घर में बड़े बेटे बहू की फुसफुसाहट ने माँ के पाँव छान लिये। उन्होंने पिताजी को इशारे से रोका। बाबू जी को कई-कई संदेह होने लगे और कुपात्र बड़े बेटे के प्रति दुराव गहराने लगा।
माँ ने सुना, बहू कह रही थी-“एक सौ रुपये हैं मेरे पास, माँ-बाबूजी को दे दो।’
“तुम्हीं दे दो। इतनी बड़ी यात्रा में सौ रूपल्ली ढेले की तरह है।” बेटे की झंझलाहट सुनी।
पर, कुछ तो दोगे। माँ बाबूजी को तीर्थयात्रा में भले इसका मूल्य न होगा, पर हमारी तृप्ति तो होगी।“
“मुझे लज्जा आती है, तुम्ही दे दो। छोटे भाई की दौलत के आगे इस सौ रुपये को लेकर बढ़ रही तुम्हारी मूर्खता पर मुझे  तरस आती है।” बड़े बेटे की बात बाबूजी ने सुनी, तो उनकी झल्लाहट बढ़ गयी।
उन्होंने माँ को झिड़का- “तुम क्या इन ड्रामेबाजों की चिल्ल-पों बड़ा रही हो। देर हुई जा रही है। निकल चलो।”
माँ ने कंधे से अपना बैग उतार दिया। बरामदे पर लगी कुर्सियों में से एक खींची और दूसरी बाबू जी के हवाले करते हुए बैठने का इशारा किया। ‘’सुनो जी, बुढ़ापे में जो बच्चे साथ रहते हैं, उनका मूल्य कितना है, यह तो विचारो। शहर में रह रहे छोटे बेटे-बहू की दौलत के आगे साथ रहनेवाले बड़े बेटे-बहू के सौ रुपये को रखकर देखो। मेरा कहा मानो, असल तीर्थ तो इस घर में है। मैं तो अब कहीं नहीं जाऊँगी। बड़े बेटे के सौ रुपये की मिठाई मंगवाकर अपने घर में एक साथ खाकर ही मुझे तृप्ति मिले, तो मैं क्यों तीर्थयात्रा पर जाऊँ।”
“हाँ, तीर्थों के मोक्ष की तुलना में घर की भावनाएँ अधिक तृप्ति देती हैं।’’ बाबूजी की बातें सुनते ही बड़े बेटे के हाथ सौ रुपये के मुड़े-तुड़े नोट पर प्यार से छू गए।

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2-पिता :  युगल

उस ढीली अदवान वाली खाट पर जो पड़े हैं वह मेरे पिता हैं। इस खाट पर आज उन का चालीसवाँ दिन है। विगत होली के दिन सहसा उन की कमर में दर्द उठा। पाँव थरथराने लगे और वह वही लुढ़क गये। पाँव चलाने में असमर्थ। उठाकर उन्हें इस खाट पर डाल दिया गया। वर्षों से वह उसी खाट पर सोते रहे हैं। डॉक्टर ने देखा। जो दवा लिखी, चल रही है। लाभ में लाभ इतना हुआ कि दर्द में कमी आयी लेकिन कमर से नीचे का भाग निःशक्त ही बना है। खुद उठ-बैठ नहीं सकते। धीरे-धीरे कमर से नीचे की चेतना शून्य होती गयी है। अचेत में ही पेशाब पाखाना हो जाता है। माँ कपड़े बदल देती है। लेकिन वह भी बीमार और लाचार है। परेशान हो जाती है। इसलिए उन्हों ने खाना कम कर दिया है। बहाना करते हैं। “भूख नहीं है।

पिछले दस दिनों से वह एकदम चुप रहने लगे हैं- आत्मस्थ । चुपचाप सबों को देखते रहते हैं। उन आँखों में जीवन के प्रति निरपेक्षता की छाया होती है। पूरी तरह वह पराश्रित हैं। ऐसे परावलंबन में जीवन के प्रति कौन सी हसरत बचेगी ? उस दिन जब मैं उन के पास था, अपने सिर के इशारे से उन्हों ने मुझे अपने पास बुलाया। बोले “चंदर का पता तो है तुम्हारे पास ? टेलीफोन की सुविधा भी है उसे उस से कहना

“जी मैं ने उसे सूचित कर दिया है।”

“कि मैं मरने वाला हूँ?” एक मुर्दा मुस्कान उन के पपरिआये ओठों पर आयो

और गयो- “क्या बोला ?” कहा- कौन सा मुँह लेकर आऊँ ?”

पिता जी की आँखें भर आयीं आँसू को वह आने से उन्हों ने रोका नहीं। तभी से उन्हों ने चुप्पी साध ली है।

चंदर मेरा छोटा भाई है। उधर दिल्ली में है। एक होस्टल के मेस में बचपन में पड़ने से भागता रहा था। घर से स्कूल के लिए निकलता। लेकिन आवारा लड़कों के साथ तारा-जुए में चला जाता। बीड़ी-सिगरेट की लत भी लगा ली थी। घर से चीजें चुराकर बेच दिया करता था। पिता जी मारते पीटते। लेकिन मार का कोई असर उस पर नहीं हुआ। मैट्रिक में दो बार फेल हो चुका था। पिता जी का मनस्ताप बढ़ता जा रहा था। में सरकारी नौकरी में लग चुका था। चंदर के नकारापन पर वह सिर धुनते कि इस लड़के का भगवान ही मालिक है। जब वह तीसरी बार फेल हो गया.. तो पिता जी बच्चों की तरह से पढ़े। चंदर कई दिनों तक घर नहीं आया। चार या पाँच दिनों बाद वह छिपकर घर आ रहा था कि पिता जी ने उपटकर कहा “खड़ा रहा’ चंदर खड़ा हो गया। पिता जो घर के अंदर से एक रस्सी से आये और उसे अपनी गरदन के गिर्द लपेटकर उस के दोनों छोर चंदर के हाथ में थमा कर बोले “मुझे शहतीर के हुक से लटका है। फाँसी लगा दे कि मेरा संताप मिट जाये।”

चंदर की उम्र उस समय यही अट्ठारह उन्नीस की रही होगी। कच्ची उमर हो मानी जायेगी। वह उसी दम मुड़ा और घर से बाहर चला गया। चार साल तक उस का कोई अता-पता नहीं चला। पता मिला तो मैं एक बार दिल्ली जाकर उसे देख आया। पिता जी ने कभी नहीं पूछा कि कहाँ है ? क्या करता है ? अब जब कि यह खाट पर अवश पड़े हैं तो पश्चात्ताप दुख और ममता के आँसू उभर उभर आते हैं। इधर जब भी टेलीफोन की घंटी बजती है, वह आँखों हो आँखों में पूछते हैं कि फोन क्या चंदर का था ? में उन आँखों को पढ़ता हुआ कहता हूँ * फोन चंदर का नहीं था। अक्सर उन आँखों के सवाल का जवाब मैं नकार में सिर हिलाकर दे देता। सुनकर उन के ओठ धिंच जाते। आँखें भर आती। इधर वह सबों को डूबती नजरों से देखते रहते थे। पुतलियाँ बेरौनक और मैली होने लगी थीं। एक दिन माँ के सामने मेरे मुँह से निकल गया “यह सप्ताह मुश्किल से कटेगा।’ अगले दिन साँझ में उन्हों ने भरे कठ से स्फुट शब्दों में कहा “वह आये, तो उस से कहना मुझे माफ कर दे। घर लौट आए।” और उन की आँखों से आँसू जारी हो गये। पिता जी उसी रात गुजर गए।

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