साहित्य में लघुकथा का स्थान हमेशा से महत्त्वपूर्ण रहा है। कम शब्दों में किसी बड़ी बात को कह देना एक कला है, जो एक सफल लघुकथाकार बखूबी अपनी कथा में कहता है। पिछले 15-16 वर्षों से मैं वेब पत्रिका उदंती.com ( www.udanti.com) का संपादन करते आ रही हूँ , जिसमें लगातार लघुकथाओं का प्रकाशन किया जा रहा है। साल -दर -साल दिखाई दे रहा है कि नए लघुकथाकारों की बिरादरी बढ़ती चली जा रही है, जो एक शुभ संकेत है। इस बाढ़ में लघुकथा का वास्तविक उद्देश्य कहीं विलुप्त न हो जाए, इसका ध्यान रखना होगा।
आधुनिक जीवन की भागदौड़ वाली इस जिंदगी में आज पाठकों के पास पहले की तरह उपन्यास और लम्बी कहानियाँ पढ़ने का समय नहीं रहा। ऐसे में लघुकथा आज अधिक लोकप्रिय विधा के रूप में उभर कर सामने आई है। लोग किसी घटनाक्रम को शब्दों में पिरोकर सोचते हैं कि उन्होंने एक बढ़िया लघुकथा लिख ली है; परंतु लघुकथा लिखना इतना आसान नहीं है। कम शब्दों में एक वृहद् विचार या समाज की किसी परिस्थिति अथवा विसंगति को रेखांकित करना श्रमसाध्य है। अक्सर देखा गया है कि कुछ रचनाकार छोटी कहानी को ही लघुकथा का नाम दे देते हैं, कहानी को संक्षिप्त कर देने से वह लघुकथा नहीं बन जाती। जहाँ कहानी में किसी बात को विस्तार से कहने की गुंजाइश होती है, वहीं लघुकथा में बड़ी बात को सटीक और संयमित शब्दों में कहना होता है, ताकि कथा का मर्म सीधे पाठकों के दिल तक पहुँचे और यही लघुकथा का उद्देश्य भी है। एक लघुथाकार तभी सफल कहलाता है, जब उसके द्वारा उठाए विषय को पढ़कर पाठक उसपर चिंतन- मनन और मंथन करने को विवश हो जाता है।
मेरी पसंद के लघुकथाकार की बात करूँ, तो वह सूची बहुत लम्बी है; अतः प्रत्येक पसंदीदा लघुकथाकार का नाम यहाँ देना संभव नहीं है । मैं उन दो लघुकथाओं की बात करूँगी, जिन्होंने मुझे भीतर तक झकझोर दिया है। मानवीय संवेदना और वर्तमान जीवन की विसंगतियों को दर्शाती डॉ. सुधा गुप्ता जी की बेहद संवेदनशील लघुकथा है-‘कन्फ़ेशन’ । सुधा जी के बारे में क्या कहूँ, वे किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। साहित्य- जगत् को समृद्ध करने वाली स्नेहमयी सुधा दीदी पिछले माह 18 नवम्बर 2023 को हम सबको छोड़कर स्वर्गवासी हो गईं। उन्हें मेरा सादर नमन।
सुधा जी की लघुकथा ‘कन्फ़ेशन’ ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि कुछ परंपराओं ने किस प्रकार हमारी आस्था और विश्वास पर कुठाराघात किया है। सुधा जी की लघुकथा कन्फ़ेशन एक मार्मिक रचना है। अर्थिक रूप से कमजोर सच्चे और दूसरों की सहायता करने वाले बीमार पिता के अंतिम समय को अभिव्यक्त करती एक संवेदनशील कथा है। उनके अंतिम समय में पादरी उनसे कन्फ़ेशन करने को मजबूर करते हैं कि वे अपना पाप स्वीकार करें । इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में कभी कोई पाप ही नहीं किया, तो भला वह कैसे स्वयं को पाप का भागीदार माने। पर हमारे समाज के तथाकथित रखवाले चली आ रही कुछ रुढ़िग्रस्त प्रथाओं के चलते जबरदस्ती उन्हें पाप का भागीदार बनाते हैं।
मेरी पसंद के दूसरे लघुकथाकार है सुभाष नीरव जी, जिनकी लघुकथा है ‘कबाड़’। लघुकथा कबाड़ में नीरव जी ने आधुनिक परिवेश में खून के रिश्तों में आ रही दूरियों को बेहद संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है। देश और दुनिया में बढ़ रहे वृद्धाश्रमों की संख्या और अकेले होते जा रहे माता – पिता की संख्या इस बात की ओर इशारा करते हैं कि जिन माता- पिता ने अपनी संतान की सुख- समृद्धि के लिए स्वयं अभाव में रहते हुए सब कुछ लुटा दिया, वही संतान जब लायक और समृद्ध बन जाती है, तो माता पिता को बोझ समझने लगती है । नीरव जी ने इस सामाजिक विसंगति को अपनी लघुकथा कबाड़ में बड़ी खूबी के साथ उकेरा है कि किस तरह वृद्ध पिता की अहमियत लायक बेटे की जिंदगी में एक कबाड़ की तरह हो जाती है। लेखक ने बहुत ही भावनात्मक और संवेदनशीलता के साथ कसे हुए शब्दों में इस कथा को बुना है।
1.कन्फ़ेशन– डॉ. सुधा गुप्ता
माइकेल कई बरस से बीमार था। साधारण-सी आर्थिक स्थिति; पत्नी बच्चे सारा भार। जितना सम्भव था इलाज़ कराया गया; किन्तु सब निष्फल। शय्या-क़ैद होकर रह गया। लेटे-लेटे जाने क्या सोचता रहता…अन्ततः परिवार के सदस्य भी अदृष्ट का संकेत समझ कर मौन रह, दुर्घटना की प्रतीक्षा करने लगे। एक बुज़ुर्ग हितैषी ने सुझाया- ‘अब हाथ में ज़्यादा वक़्त नहीं, फ़ादर को बुला भेजो, ताकि माइकेल ‘कन्फेस’ कर ले और शान्ति से जा सके।’ बेटा जाकर फ़ादर को बुला लाया। फ़ादर आकर सिरहाने बैठा, पवित्र जल छिड़का और ममता भरी आवाज़ में कहा-‘प्रभु ईशू तुम्हें अपनी बाहों में ले लेंगे बच्चे! तुम्हें सब तक़लीफ़ों से मुक्ति मिलेगी, बस एक बार सच्चे हृदय से सब कुछ कुबूल कर लो ।’
माइकेल ने मुश्किल से आँखें खोलीं, बोला-‘फादर, मैंने कभी किसी को धोखा नहीं दिया।’
फादर ने सांत्वना दी- ‘यह तो अच्छी बात है, आगे बोलो।’
माइकेल ने डूबती आवाज़ में कहा-‘फादर, मैं झूठ, फ़रेब, छल-कपट से हमेशा बचता रहा।’
फादर ने स्वयं को संयमित करते हुए कहा- ‘यह तो ठीक है पर अब असली बात भी बोलो…माइकेल!’
माइकेल की साँस फूल रही थी, सारी ताकत लगाकर उसने कहा- ‘फादर, दूसरों के दुःख में दुःखी हुआ, परिवार की परवाह न कर दूसरों की मदद की…’
अब फादर झल्ला उठे- ‘माइकेल, कन्फेस करो…कन्फेस करो…गुनाह कुबूलो…वक्त बहुत कम है…”
उखड़ती साँसों के बीच कुछ टूटे- फूटे शब्द बाहर आए, ‘वही…तो कर…रहा हूँ…फादर…!’
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2-कबाड़ -सुभाष नीरव
बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी-खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।
बेटा सीधे ऑफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में लगवाते रहे।
दोपहर को लंच के समय बेटा आया, तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-सँवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह !
बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। बड़ा-सा किचन, किचन के साथ बड़ा-सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ-कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और सोचने लगा। उसने तुरन्त पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया- देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिंकवाओ। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंग-रूम बनाऊँगा।
रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।
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