
शब्द के अर्थ होते हैं। शब्द से अर्थ भी निकलते हैं। लघुकथा वह कथा है जिसका स्वरूप लघु होता है। एक बिंदु पर लिखी गई कंडेन्स्ड (संघनित) कथा ही ‘लघुकथा’ होगी। शिल्प तो होगा- पर न्यूनतम सटीक शब्दों, बिम्बों, प्रतीकों आदि के साथ। अनावश्यक शब्द उसे ‘लघु कहानी’ की ओर धकेल देंगे। जब लघुकथा शब्द अर्थ सहित प्रचलन में नहीं था, कहानीकार एक बिंदु पर लिखी गई कथा को रूप देने के लिए उसके शिल्प में शब्दों से विस्तार करते थे। लघुकथा की थाली में अनिवार्य शब्दों के अतिरिक्त शब्द अपाचक, अस्वादिष्ट ही होते हैं, भले ही वे खाद्य पदार्थ के ही अंश हों। लघुकथा, साहित्य की ही विधा है, तो उसकी भी कई शैलियाँ होंगी, परंतु सभी में भाषा, चुस्त, दुरुस्त, सटीक और किफायती ही होगी। कहीं से भी एक शब्द निकाल दिया जाए तो, अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। या भटक जाएगा। मोटे तौर पर केवल एक बिंदु पर लिखी गई संघनित कथा ही ‘लघुकथा’ होगी। लघुकथा से लघु कहानी, लघु कहानी से कहानी, कहानी से लघु उपन्यास, लघु उपन्यास से उपन्यास- इस तरह बिंदुओं और आवश्यक शब्दों (अनिवार्य नहीं) की अधिकता होती जाती है। इनमें स्पष्ट अंतर करने में वैसे ही सावधानी बरतनी पड़ती है जैसे हम दरवाजे से एक कदम में ही बाहर और भीतर होते हैं। कथ्य में जैसे-जैसे बिंदुओं, शब्दों (वाक्यों का भी) विस्तार होता जाएगा, रचना क्रमश: कहानी, उपन्यास में परिवर्तित होती जाएगी। क्रमश: इनमें से कुछ शब्दों कों, वाक्यों को, यहां तक कि पैराग्राफों को भी निकाल दिया जाए तब भी उसकी आत्मा मरेगी नहीं। लघुकथा में ऐसा नहीं हो सकता।
लघुकथा लिखने की एक शैली है, प्रतीकात्मक। प्रतीकों या प्रतीक का सटीक चुनाव ही पात्र के चरित्र और विशेषताओं को बोल देता है। प्रतीक रचना में उत्सुकता उत्पन्न करने में भी सफल होते हैं, समझाने में भी। अनिल मकरिया की लघुकथा ‘नंगापन’ का चुनाव करने का यह भी एक कारण है, हालाँकि भेड़ और कुतिया, दोनों प्रतीक परिचित मगर साधारण हैं। नारी के कई रूप हैं, तो उसके चरित्रों को दर्शाने के लिए कई प्रतीक भी हैं। आज भी नारी का महल से लेकर झोपड़ी तक, शहर से जंगल तक, मैदान से सड़कों-गलियों तक, सभी जगह शोषण हो रहा है, प्रताड़ित की जा रही है, वह भी न जाने कब से। लघुकथा ‘नंगापन’ में सिर्फ दो रूपों की, दो प्रतीकों के माध्यम से स्थिति बताने का प्रयास किया गया है कि तरीके अलग-अलग हैं, पर उद्देश्य एक ही है। वैसे भी यदि दो से अधिक प्रतीक लेकर कथा लिखी जाती, तो लघुकथा से इतर कोई रचना बनने की संभावना बढ़ जाती। ऐसी बात नहीं है कि नारियों का शोषण केवल नर ही करते हैं, नारियाँ भी करती हैं। वहीं कुछ पुरुष ऐसे भी मिलते हैं, जो सदा नारियों का हित ही सोचते है। बात नारियों को समझने की है। ‘आधी रात‘ (शब्द अनिवार्य नहीं है।) को कुछ कुत्तों ने एक कुतिया पर हमला कर उसे भंभोड़कर भेड़ों के बाड़े के आगे फेंक दिया।’
प्राय: चर्चा नारियों के प्रताड़ित, शोषित रूपों की होती है। वास्तव में ऐसी चर्चा भी छद्म उत्प्रेरक का कार्य करती है, जबकि उसके लक्ष्मी, सरस्वती और खासकर दुर्गा रूपों की चर्चा ज्यादा की जानी चाहिए। स्थिति तो यह है कि प्राय: पुरुष ही घर से युद्ध के मैदान तक आपस में लड़ते हैं और गालियाँ माँ-बहन को देते हैं (वे सुनती हैं)।
“इतनी सुरक्षा और ढका शरीर तुम्हें मुझसे अलग करता है।” भेड़ बाड़े के अंदर ही होती है, जबकि कुतिया घर, सड़क से लेकर वेश्यालय तक कहीं भी हो सकती है, जो जिंदगी भर हलाल होती है, जबकि भेड़ के जिंदगी भर बाल काटे जाते हैं। इसलिए तुलना हल्की है। आजकल तो नारियाँ सुंदर दिखने के लिए जिंदगी भर बाल कटवाती रहती हैं। इसलिए प्रतीक ज्यादा सटीक नहीं हैं। पर नारियों की दशा एवं दिशा बताने का प्रयास करती है लघुकथा, इसलिए आकर्षित तो करती है।
आज भी काफी नारियों का शोषण हो रहा है, तो दूसरी ओर किशोर-युवा बनने को आतुर किशोरों की काफी संख्या जानने-समझने, खासतौर पर लुकी-छिपी बातें जानने को उत्सुक रहती है। ऐसे में ठीक से न जानने के कारण असामाजिक कार्य भी कर बैठती है। संवादात्मक शैली में लिखी गई लघुकथा ‘कोठा-संवाद’ में लघुकथाकार कहीं नहीं है। महेश दर्पण मूलत: कहानीकार हैं, पर उन्होंने कुछ लघुकथाएँ भी लिखी हैं। उनमें ‘कोठा-संवाद’ खास है, क्योंकि यह उनकी कहानी जैसी ही दमदार है। इसमें एक किशोर-युवा एवं वेश्या के बीच संवाद है, पर कहीं भी वेश्या, किशोर-युवा शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। दुनिया को और खासतौर पर पुरुषों के हर वर्ग, वय के लोगों को अच्छी तरह समझती है वेश्या। एक किशोर-युवा को झिड़कती हुई समझाने का प्रयास करती है कि वह जो बोल रहा है, समझ नहीं रहा है। पूछ रहा है, वह उसके पेशे के अनुसार ठीक नहीं है- ।
“नाम तो ऐसे पूछा कि ‘मरद’ ही बनेगा मेरा।’ ‘नाम तो बता दूँ… पन मरद बनेगा तू मेरा?”
“मरद बनने के लिए तो मां की इजाजत लेनी पड़ेगी?” वह वहाँ आने के लिए छोटा है, इसलिए पिताजी से इजाजत की बात नहीं कहता। वेश्या पूछती है, “कोठे पर भी क्या अम्मा की इजाजत लेकर आया था, पिल्ले…?”-
पिल्ले शब्द छोटी उम्र को दर्शाता है।
दोनों लघुकथाएँ लघुरूप में ही हैं जिनमें संवाद से ही संवाद निकल रहे हैं।
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1- कोठा-संवाद* महेश दर्पण
”तेरा नाम क्या है ?”
“तेरे कू नाम से काम है या काम से… ?’’
”नाम से हो, तो हर्ज कया है ?”
“नाम तो ऐसे पूछा कि ‘ मरद‘ ही बनेगा मेरा !”
” क्यों, मरद नहीं हो सकता में ?’!
“होने का क्या है….होने को तो मेरा बाप भी तेरेई जैसा था…. मरा सड़ने को पैदा कर गया।”
”तू नाम नईं बताएगी और दुनिया की गाए चली जाएगी! ”
“नाम तो बता दूं….पन मरद बनेगा तू मेरा ?’’
”मरद बनने के लिए तो माँ की इजाजत लेनी पडेगी…. ।”
“कोठे पर भी क्या अम्मा की इजाजत लेकर आया था पिल्ले… !”
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2– नंगापन / अनिल मकरिया
आधी रात को कुछ कुत्तों ने एक कुतिया पर हमला कर उसे भंभोडकर भेडों के बाड़ के आगे फेंक दिया।
तारों की बाड़ के पीछे खड़ी भेड़ को देखते हुए कुतिया बोली- ‘‘इतनी शुरक्षा औए ढका शरीर तुम्हें मुझसे अलग करता है।’’।
भेड़ की नज़र कुतिया की हालत पर पड़ी।
“कोई फर्क जही है। फर्क केवल इतना है- तुम्हारा शोषण बाहर होता है और दिखता है। मेरा
शोषण इस बाड़े के अंदर होता है, जो कभी नजए नही आता। ”
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