मेरे द्वारा अब तक पढ़ी गई अनेक लघुकथाओं में से वैसे तो अनेक ने प्रभावित किया; परन्तु लघुकथा डाट. काम के स्तम्भ “मेरी पसंद” के लिए हमेशा से एक खिंचाव के चलते , ऐसी दो लघुकथाएँ अपनी स्मृति में से ढूँढकर लाने की कोशिश में , मैंने दो लघुकथाएँ चुनी हैं:
1. संतोष सुपेकर /सोशल मिडिया नहीं, 2 . ‘ डॉ रेनू सिंह/ गांधी जी के तीन बन्दर
“सोशल मिडिया नहीं ” को जब पढ़ा तो बहुत देर तक मन उद्विग्नता की स्थिति में बना रहा। कहते है परस्पर रिश्तों में संवेदना की उपस्थिति ही वह कारक है जो परिवार को एक गठजोड़ का स्वरूप प्रदान करती है। मानव को अन्य जीवों से अलग और उच्च स्थान इसी आधार पर मिला है कि मानवीय सरोकार उसके व्यवहार का मूल तत्व होते हैं। विचार करना , विचार सृजित करना मनुष्य मात्र की ही क्षमता है , अन्य किसी भी जीव को ईश्वर ने यह क्षमता प्रदान नहीं की है। विचार जब सुविचार में परिवर्तित हो जाता है तो परस्पर दुर्भावना का भाव अपने आप विलोपन की स्थिति में पहुँच जाता है। कोई भी माँ – बाप नहीं चाहते कि परस्पर संबंधों की दुनिया में उनकी संतान उनके सामने या उनके बाद भी किसी विवाद या विग्रह के मकड़जाल में फंसकर या किसी ईर्ष्या – द्वेष को अपने रोज – मर्रा के कार्य व्यापार का हिस्सा बनाएँ । माँ के लिए अपनी संतान का हर रूप किसी भी दृष्टि से न कोई कम होता है और न ही ज्यादा। वह चाहती है कि उसके बच्चे कभी भी एक – दूसरे से किसी भी प्रकार का द्वेष न रखे और परस्पर इस प्रकार का व्यवहार करें कि उनके बीच सद्भावना का दृढ विचार जीवन – पर्यन्त बना रहे। इस उद्देश्य की सफलता के लिए आवश्यक है कि वे आपस में अपनी हर ख़ुशी, हर उपलब्धि या विषाद के क्षण न केवल एक – दूसरे के साथ साझा करें , बल्कि एक – दूसरे को समय – समय पर अवसर मिलते ही यह एहसास भी करवाएँ कि वे परिस्थितिजन्य विवशताओं के चलते भले ही एक – दूसरे से अलग रहते हैं परन्तु भावनात्मक रूप से एक दूसरे के अत्यंत निकट हैं और उनके हर ख़ुशी , हर गम के बराबर के हिस्सेदार हैं। जन्म दिन भले ही हर वर्ष आता हो और जीवन में एक पड़ाव ऐसा भी आ जाता जब यह दिन केवल एक औपचारिकता मात्र रह जाता है फिर भी कोई अपना अगर इस दिन सद्भावना सन्देश भेज दे तो ह्रदय अनायास ही प्रफुल्लित हो जाता है और यदि यह सन्देश किसी ऐसे व्यक्ति से प्राप्त हो जाए, जो मन के किसी कोने में टीस बन कर बैठा हुआ है , तो उसके प्रति सारे शिकवे एक ही झटके में दूर होते देर नहीं लगती। संतोष सुपेकर जी की यह लघुकथा इसी सत्य और भावना को बड़े संवेदित अंदाज में सरलता से कह जाती है। यहाँ यह कार्य माँ की अनुपस्थिति में सोशल मिडिया करता है जो भाई को भाई का जन्म दिन याद दिलवाता है और वह अपने उस भाई को बिना देरी किएँ फोन पर बात करके शुभकामनाएँ प्रेषित करता है, जबकि दोनों भाई पिछले कुछ वर्षों से किन्हीं अप्रिय घटनाओं के कारण एक – दूसरे से रूठे हुए हैं। इस एक काल से अप्रिय भावनात्मक दृश्य बदल जाता है और दोनों भाईओं के बीच का मनमुटाव, आपसी गीले – शिकवे एक ही पल में बर्फ के गोले की तरह पिघल जाते हैं। ऐसा करने की बाध्यता, उसके अंदर स्वर्गवासी माँ द्वारा बार – बार कहे गए उस कथन के कारण उत्पन्न होती है जो कहा करती थी – ” कोई भी सद्विचार जब भी मन में आएँ , उसके अनुरूप कार्य करने की तत्परता दिखाने में देर नहीं करनी चाहिए। ” इस लघुकथा के माध्यम से लघुकथाकार ने ‘ सोशल मिडिया ‘ के सकारात्मक प्रभाव को भी इंगित किया है और साथ ही माँ के रूप में बड़ों द्वारा दी गई सीख के महत्व को भी उजागर किया है । इस दृष्टि से भी यह लघुकथा मेरी स्मृति का हिस्सा बन गई है।
“गाँधी जी के तीन बन्दर ” जब पढ़ने को मिली तो बरबस ही मन अपनी जगह रुक कर खड़ा हो गया। बढ़ती अनियमित आबादी ने महानगरों और उनकी फ्लैट – संस्कृति को अब देश के लगभग सभी नगरों की आवश्यक बुराई बना दिया है। रोजी – रोटी की दौड़ भाग से त्रस्त इस तथाकथित संभ्रांत संस्कृति वाले महानगरों में पड़ोसी तो क्या , आपसी पारिवारिक संबंधों में भी ” हमें क्या – तुझे क्या , यह मेरा निजी मामला है, मुसीबत मैंने खुद मोल ली है तो इससे निपटना भी मुझे आता है , ये उनके घर का अंदरूनी मसला है , उन्हें खुद ही निपटा लेने दो, किसी दूसरे की खड़ी – डंडी को अपने हाथ में लेना मूर्खता है और अगर बात पुलिस से होते हुए कोर्ट तक पहुँच गई तो लेने के देने पड़ जाएँगे”, आदि – आदि संवाद रोजमर्रा की आम जिंदगी में सुनने को मिल जाते हैं। उसका परिणाम यह हुआ है कि हमारे घर की दीवारों से सटे घर में भी यदि कोई अप्रिय घटना अपनी वीभत्स्व उपस्थिति दर्ज करवाती है तब या तो हमें पता ही नहीं चलता और पता चल जाने के बाद भी हम जानबूझकर उसकी सिरे से उसकी अवहेलना करके , अपनी सामान्य दिनचर्या में जरा भी खलल नहीं आने देते । पड़ोसी किसी भी तरह की मुसीबत से बिलबिला रहा हो, हमारी संवेदना विचलित नहीं होती । उसकी आसन्न पीड़ा का कोई उपचार हमारे किसी प्रयास से हो सकता है या हो जाय , इसकी अनुमति हमारी संवेदनाये हमें नहीं देतीं। आर्थिक विकास के उच्च स्तम्भों को पकड़ रही आज की मानसिकता के सामाजिक सरोकार बदल गए हैं। आबादी के जंगल में हर कोई सिर्फ अपनी दौड़ में दौड़ने के नाम पर हर मानवीय मूल्य से फिसलता जा रहा है। ‘गाँधी जी के तीन बन्दर’ आधुनिक समाज की इसी सामाजिक विडंबना को नारी – विमर्श की एक सामान्य घटना , जो बहुत से भारतीय परिवारों में बहुतायत से होती है ,को बड़ी सरलता परन्तु प्रभावपूर्ण वेदना के साथ प्रस्तुत करती है और पाठक को मजबूर करती है की कहीं दूर न सही यदि हमारे पड़ोस में ही किसी के साथ कोई गलत बात हो रही है तो मानव होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि उसे नजर – अंदाज न करें , अपनी सामर्थ्य भर गलत बात का प्रतिकार करें और पीड़ित को न्याय और सहायता पहुँचाना अपना कर्तव्य समझें। इस रचना के इस सांकेतिक सन्देश ने इस लघुकथा को स्मरणीय बना दिया है।
-0-
सोशल मिडिया नहीं / संतोष सुपेकर
जब सुबह मैंने मोबाइल फोन की स्क्रीन देखी तो फेसबुक याद दिला रहा था कि आज अमित का जन्म दिवस है।
‘ओह , थेंक्स फेसबुक!’ ” सोचते हुए मैं खुद से पूछने लगा ,” बात करूँ क्या अमित से ? बर्थ डे विश करूँ उसे अभी ? अब पहले जैसे संबंध तो रहे नहीं उससे मेरे ?” सोचते हुए मेरी नजर सामने दीवार पर पड़ी तो माँ की मुस्कुराती हुई तस्वीर ने अचानक इस उलझन को खत्म कर दिया।
माँ हमेशा सीख देती थी न , नहीं – नहीं , अभी ही कर लेता हूँ अमित को फोन। बाद में कहीं भूल गया तो ,आजकल बर्थडे के विश करना। ”
सोचकर मैंने फोन उठाया और अमित से बात कर ली।
इस अनअपेक्षित बातचीत से अमित बहुत अचम्भित , बहुत खुश हुआ तथा आल्हादित हुआ और मुझे भी हम दोनों के रिश्तों में आ रही खटास अब समाप्त सी होती लगी।
“थेंक्स फेसबुक और उससे भी बड़ा थेंक्स माँ तुमको!”
मैंने फिर नजर उठाई तो माँ की याद आ गई। माँ हमेशा कहा करती थी कि किसी का बर्थडे याद आ गया हो और उसका जिक्र निकला हो, तो देर मत करो और तुरंत बात कर ही लो उससे , जिसका बर्थडे है। वर्ना ‘ बाद में – बाद में के चककर में भूल गए तो साल भर पछतावा होगा। सोचते हुए मैं भावुक हो उठा ,और एक बात की सीख याद है ! वो कहती थी कि आजकल बर्थडे विश करना , रिश्तों में आ रही दूरियाँ घटाने का सबसे बड़ा पुल है।
“आज माँ नहीं है। याद दिलाने के लिए फेसबुक है लेकिन याद दिलाने , सीख देने के साथ – साथ एक मीठी चेतावनी तो माँ ही देती थी , सोशल मिडिया नहीं।’’
-0-
2-गांधी जी के तीन बन्दर/ डॉ रेनू सिंह
स्त्री स्वर बिलख रहा था। पीटने की आवाज के साथ ही भद्दी गलियों से कलुषित पुरुष स्वर की दहाड़ भी थी। जो मेरे फ्लैट की बालकनी से लगी हुई दूसरी बालकनी से आ रही थी ये आवाजें।
मार खाती और रोतीं हुई उस स्त्री के कारुणिक – क्रंदन को मैं अधिक देर तक बर्दाश्त न कर सकी। भगति हुई सीढ़ियों से नीचे उतर गई। अगले जीने पर चढ़ते हुए देखा, कुछ खिड़कियाँ बंद कर ली गयीं थीं। कुछ में कुछ आँखें टंगी बस जायजा ले रही थीं।
मैंने उस घर की बेल बजा दी , थोड़ी देर बाद एक नौजवान सामने खड़ा था।
” आप उसे क्यों मार रहे हैं ? “
” मेम ,यह मेरा घरेलू मामला है। आप बीच में मत पढ़िए। “
” मिस्टर , मैं अभी पुलिस को काल करूंगीं। किसी को पीटना गुनाह है। क्या आप नहीं जानते ? एक लड़की जो आपके सहारे अपना घर छोड़ कर आई है , उसे आप पीट रहे हैं। आप इंसान हैं या ! बंद करो यह हरकत ! “
एक सांस में बोल गई थी मैं। इन हिदायतों के बाद जनाब ढीले पड़ गए थे।
” सॉरी मेम।”
” ठीक है, आइंदा ऐसी हरकत न हो।”
मैं वापस नीचे आ रही थी। नीचे मिसेज दास टहल रहीं थीं। शायद उन्होंने मुझे जाते हुए देख लिया था।
” हेलो विभा , इस वक़्त कहाँ ?”
“क्यों , क्या आपने लड़की की चीखें नहीं सुनी ? “
“ओ हो ! आप भी क्यों पड़ती हैं , मियाँ – बीबी के पचड़े में ? “
“एक बेटी पिटती रहे और हम चुप रहें ! क्या यह ठीक है ? “
“देखिए ! मिसेज चोपड़ा , गाँधी जी के तीन बंदरों को याद रखिए , बुरा मत सुनो , बुरा मत देखो , बुरा मत कहो। ” मिसेज दास ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।
“पर मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं होता। मैं चुप नहीं बैठ सकती, उफ़ ! ये पाश सोसायटी और उसके यह संभ्रांत लोग।” कहकर मैं भुनभुनाती हुई अपनी सीढियाँ चढ़ने लगी।
-0-