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Channel: मेरी पसन्द –लघुकथा
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हृदयस्पर्शी लघुकथाएँ

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कुछ वर्षों पूर्व मैंने अपने महाविद्यालय के पुस्तकालय में एक पुस्तक ‘The Laghukatha’ देखी, तो अंग्रेजी में हिन्दी नामकरण देखकर मैं आकर्षित हुई । उसे उलटने-पलटने पर बात समझ में आयी कि वस्तुतः यह इरा बलेरिया सर्मा द्वारा । A Historical and Literary Analysis of a Modern Hindi Prose Genre प्रस्तुत शोध प्रबन्ध है। धीरे-धीरे इस पुस्तक को मैंने आद्योपान्त पढ़ डाला । इसको पढ़ने के पश्चात् लघुकथाएँ पढ़ने के प्रति मेरा रुझान क्रमशः बढ़ता गया ।

महाविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध मैंने अनेक लघुकथा-संग्रह एवं संपादित संकलन पढ़ डाले, उनमें अनेक-अनेक लघुकथाएँ ऐसी थीं, जिन्होंने संवेदना के स्तर पर मुझे भीतर तक भीगो दिया, ऐसी लघुकथाओं को मैंने बार-बार पढ़ा और हर-बार एक नये आनंद की अनुभूति हुई। आज भी मैं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रायः लघुकथाएँ पढ़ती रहती हूँ । इसी क्रम में मुझे ‘लघुकथा डॉट कॉम’ देखने-पढ़ने का अवसर मिला, जिसका हर स्तंभ अनूठा है मेरी पसन्द ने मुझे विशेष रूप से आकर्षित किया । सोचा मुझे भी अपनी पसंद से लोगों को अवगत कराना चाहिए । यह सोचकर मैंने अन्य अनेक लघुकथा-संग्रह पढ़ डाले । इस लघुकथा अध्ययन के क्रम में मुझे जिन लेखकों की लघुकथाएँ विशेष रूप से प्रभावित करती रही हैं, उनमें रमेश बत्तरा, पृथ्वीराज अरोड़ा, , सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, चित्र मुद्गल, श्याम सुन्दर अग्रवाल, मधुदीप इत्यादि प्रमुख हैं। इनकी रचनाओं में भी रमेश बत्तरा की ‘सूअर’, पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’, मधुदीप की ‘हिस्से का दूध’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘ऊँचाई’, चित्र मुद्गल की ‘दूध’, श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘माँ का कमरा’ विशेष रूप से पसंद हैं, किन्तु डॉ.सतीशराज पुष्करणा की ‘जीवन-संघर्ष’ और सुकेश साहनी की ‘ठंडी रजाई’ की संवेदना ने मेरी हृदय पर स्थायी प्रभाव डाला है, जिन्हें भूलना मेरे लिए संभव नहीं है।

‘जीवन-संघर्ष’ लघु आकर में वस्तुतः एक बड़ी कथा है जो वर्तमान मूल्यों पर जहाँ बार-बार प्रहार करती है वहीं वांछित मूल्यों को परोक्ष रूप से शक्ति भी प्रदान करती है। यह लघुकथा वस्तुतः भ्रष्टाचार से नैतिक मूल्यों के टकराने की प्रभावशाली लघुकथा है। इस लघुकथा का कथ्य एवं शिल्प दोनों एक-दूसरे के अनुरूप हैं। इसके शिल्प की विशेषता इसका प्रस्तुतीकरण है, जिसमें सांकेतिकता एवं प्रतीकों से बहुत ही सुन्दर एवं सटीक काम लिया गया है। इस लघुकथा में नायक सीधे स्क्रीन पर नहीं है। वह स्नान-गृह में है, वहीं से वह अपने बहन-बहनोइयों द्वारा बोले गये संवादों पर रिएक्ट करता है और अपना क्रोध स्नान-गृह में अपने हाव-भाव से अभिव्यक्त करता है। इस संदर्भ में कतिपय पंक्तियाँ यहाँ द्रष्टव्य होंगी-‘वह क्रोध एवं ईर्ष्या से भर उठा और एक झटके से पानी भरा मगर सिर पर उलट लिया। एक क्षण रुका और फिर तीन-चार मग अपने शरीर पर उलट लिये और बदन पर साबुन रगड़ने लगा । लगा, जैसे गरीबी का मैल छुड़ाने हेतु संघर्ष कर रहा है.’

‘जीवन-संघर्ष’ में जिस प्रकार प्रतीकों का सहारा लेकर तथा सटीक भाषा-शैली का उपयोग करते हुए किसी निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के जुझारूपन को अभिव्यक्त करने में सफलता पाई है, उसकी दूसरी मिसाल नगण्य ही लघुकथाओं में दिखती है।

नायक अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं करता चाहे उसे अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त हो, या न हो । नायक की पत्नी जो नायक के बहन-बहनोइयों के साथ बैठी उनकी बातों को ध्यान से सुन रही है और अपने पति की आदर्शवादिता का पक्ष लेते हुए कहती है-‘हर आदमी की अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ होती हैं। जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन न करके जूझने में विश्वास रखते हैं, उन्हें मंजिल देर से ही सही, मगर मिलती जरूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है, बल्कि गर्व भी है ।’ पत्नी का यह संवाद आते-आने लघुकथा किसी को भी संवेदना से भर देती है और सही हेतु संघर्ष करने की सकारात्मक प्रेरणा भी देती है।

जीवन-संघर्ष को सटीक शिल्प में प्रत्यक्ष करती यह लघुकथा हृदय में उतर कर सोचने हेतु बाध्य करती है, इन्हीं अनेक कारणों से यह लघुकथा मुझे बेहद पसंद है।

मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा सुकेश साहनी की ‘ठंडी रजाई’ है। मनोभावों को जीवन्तता प्रदान करती यह एक ऐसी लघुकथा है जो पाठक की ठंडी मानसिकता को अपने भावों से गर्म कर देती है।

इस लघुकथा का कथानक अक्सर पास-पड़ोस एवं कॉलोनी में रहने वालो लोगों में देखा जाता हे, किन्तु कथाकार जीवन एवं समय के बारे में इतना अधिक सतर्क एवं सावधान प्रतीत होता है जो नज़रअंदाज कर दी जाने वाली घटनाओं को भी केन्द्र में रखकर हृदयस्पर्शी लघुकथा लिखने में सफल हो जाता है। लेखक अपने समय को देखता है जहाँ प्रायः व्यक्ति स्वार्थी एवं असहयोगी दिखता है और उसे किसी के दुःख-दर्द से कोई मतलब नहीं है। किन्तु आदमी फिर आदमी है और इस समय में जहाँ अकसर व्यक्ति नकारात्मक सोच लिये जी रहा है, वहीं सकारात्मक सोच के लोग भी हैं, भले ही उनका प्रतिशत अपेक्षाकृत कम क्यों न हो ।

ठंड में अपने यहाँ अतिथि आने पर जब एक पड़ोसी उनके यहाँ रजाई माँगने जाती है तो यह दम्पती रजाई देने से साफ मना कर देता है, किन्तु कुछ देर में उनके भीतर का सोया हुआ परिस्थिति से उपजी संवेदना से भावुक आदमी जीवन्त हो उठता है और वह कहता है –‘मैं  सोच रहा था— मेरा —- मतलब यह था कि —– हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।’ इस पर पत्नी कहती है, ‘तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़ी ही जाएगी।’ और वह रजाई पड़ोसी के यहाँ जाकर दे आती है।

‘ठंडी रजाई’ लघुकथा भी एक प्रतीकात्मक लघुकथा है, जो नायक एवं नायिका के परिवर्तित होते मनोभावों को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करती है । रजाई न देने से पूर्व दोनों पति-पत्नी जहाँ ठंड से बुरी तरह ठिठुर रहे थे, किन्तु वहीं रजाई पड़ोसी को दे आने के पश्चात् दोनों को वही ठंडी लग रही रजाई आरामदेह गर्माहट देती प्रतीत होती है।

इस लघुकथा का शिल्प भी सटीक है, उसमें भी उसकी भाषा-शैली कमाल की है, जिसको पढ़ते-पढ़ते उसका एक-एक अक्षर हृदय को क्रमशः संवेदित करता जाता है और लघुकथा अपने चरम तक आते-आते पाठक को संवेदनशीलता से भिगो देने में पूर्णतः समर्थ हो जाती है। वस्तुतः अपने इन्हीं अनेक गुणों के कारण यह लघुकथा मेरे हृदय में स्थाई स्थान बना चुकी है। इतना ही नहीं अपने सकारात्मक संदेश के कारण यह लघुकथा अपने उद्देश्य की पूर्ति भी बहुत ढंग से करती है।

उपर्युक्त वर्णित दोनों लघुकथाएँ क्रमशः यहाँ प्रस्तुत हैं-

१-जीवन-संघर्ष-डॉ.सतीशराज पुष्करणा

आज फिर सुबह वह हताश लौटा । हृदय में व्यथा और मस्तिष्क में तनाव लिए वह घर में किसी से भी बात करने के मूड में नहीं था । घर में दोनों बहनें भी आई हुई थीं । बहनोई भी थे ।

उसने कपड़े उतारते हुए स्नान की तैयारी आरम्भ कर दी । पत्नी पूछा,’बात बनी ?’

‘नहीं ,अभी तक कोई सूरत नहीं निकली।’  धीमे स्वर में कहकर वह बाथरूम में घुस गया और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया मगर उसके कान बहन-बहनोइयों में हो रहे वार्तालाप की ओर ही लगे थे ।

‘ भइया जैसा सोचते हैं, उस हिसाब से कहीं मकान मिला है ।’। यह बड़ी बहन थी ।

‘भइया  थोड़ी हिम्मत और दिखाएँ तो चार लाख में तीन कमरे वाला ठीक-ठाक फ्लैट तो मैं दिला सकता हूँ ।’ यह छोटा बहनोई था ।

यह संवाद कान में पड़ते ही उसका मन हुआ कि वह इसी समय बाथरूम से बाहर निकले और बहनोई से कहे, ‘यदि इतना पल्ले होता तो मैं नहीं खरीद सकता था । मैं क्या मूर्ख हूँ। वह नहीं, हराम का पैसा बोल रहा हैं बड़ा बाबू है न ! टनाटन बरसता है सीट पर ही, वह तो बोलेगा ही ।’ वह क्रोध एवं ईर्ष्या से भर उठा और एक झटके से पानी भरा मगर सिर पर उलट लिया । एक क्षण रुका और फि तीन-चार मग अपने शरीर पर उलट लिए औद बदन पर साबुन रगड़ने लगा । लगा, जैसे गरीब मैल छुड़ाने हेतु संघर्ष कर रहा है। उसके कान पुनः बाहर चल रही वार्ता की ओर सतर्क हो गए ।

‘आज पैसे का ही बोलबाला है। सरकार भी पैसे की भाषा बोलती है। केवल लेखन से क्या होगा ! जुगाड़ा किए बिना कुछ नहीं होगा ।’ यह बड़ा बहनोई था ।

साबुन रगड़ते उसके हाथ रुक गए । घुटकर रह गया । जिन बातों के विरोध में उसकी कलम चलती है, वही काम वह स्वयं करे—–? यह नहीं हो सकता । लेक्चर देने से काम नहीं होगा, जीवन के यथार्थ को समझना होगा । आदमी के कुछ अपने भी तो आदर्श होते हैं। अब मकान खरीदा जाए या न खरीदा जाए मगर वह ऐसा कुछ नहीं करेगा कि अपनी ही नजरों में गिर जाए ।

मग से पानी फिर बदन पर डालने लगा । साबुन बदन से उतरने लगा । उसने राहत महसूस की ।

‘ऐसी बात नहीं है, कोई रास्ता निकल ही आएगा । हर आदमी की अपनी-अपनी परिस्थितियाँ होती हैं, अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं। जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन न करके जूझने में विश्वास रखते हैं, उन्हें मंजिल देर से ही सही मगर मिलती जरूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है, बल्कि गर्व भी है ।’ यह उसकी पत्नी थी ।

पत्नी का संवाद सुनकर उसका चेहरा खिल उठा । उसका मन हुआ कि पत्नी को बाँहों में भर ले । अब तक वह तौलिए से अपना बदन पोंछकर कपड़े बदलने लगा था। वह किसी ताजे फूल की तरह फ्रेश हो गया था।   -0-

2-ठण्डी रजाई- सुकेश साहनी

‘कौन था ?’ उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा।

‘वही, सामनेवालों के यहाँ से’, पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, फ्बहन, रजाई दे-दो, इनके दोस्त आए हैं ।’

फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, ‘इन्हें रोज-रोज रजाई जैसी चीज माँगते शर्म नहीं आती । मैंने तो साफ मना कर दिया, कह दिया-आज हमारे यहाँ भी कोई आनेवाला है।’

‘ठीक किया ।’ वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला,’इन लोगों का यही इलाज है ।’

‘बहुत ठण्ड है।’ वह बड़बड़ाया।

‘मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं ।’ पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नजदीक घसीटते हुए कहा ।

‘रजाई तो जैसे बिलकुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे !’ वह करवट बदलते हुए बोला ।

‘नींद का तो कहीं पता ही नहीं है।’ पत्नी ने कहा, ‘इस ठण्ड में मेरी रजाई भी बेअसर-सी हो गई है।’

जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ सेंकने लगे ।

‘एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी ?’ पति ने कहा ।

‘कैसी बात करते हो ?’

‘आज जबर्दस्त ठण्ड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं । ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी ।’

‘हाँ, तो ?’ उसने आशा भरी नजरों से पति की ओर देखा ।

‘मैं  सोच रहा था— मेरा—-मतलब यह था कि —- हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।’

‘तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़ी ही जाएगी, ‘मैं  अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ ।’

वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, पति उसी ठण्डी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था। वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई। उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी ।

-०-सुनीता पाटिल (हिन्दी प्रोफेसर)रूम नं–3, सत्यलोक चैरिटेबल ट्रस्टएचैटियर अग्राम रोड, निकट रामचंद्र अस्पताल,चेन्नई -600116 (तमिलनाडु)

ई-मेल- sunitapatilmphil@gmail.com


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