आकार में नन्ही प्रतीत होने वाली किसी भी वस्तु की संरचना उतनी ही जटिल होती है, जितनी वह लघुकाय दिखाई देती है और उसका सर्जन भी उतना ही कठिन होता है । आकार में छोटी दिखने वाली हीरे की अँगूठी को गढ़ने में अथक परिश्रम लगता है, एक-एक हीरे को तराशकर बारीकियों के साथ उसे सही स्थान पर बैठाकर ही एक आकर्षक अँगूठी का सृजन संभव है । अँगूठी की संरचना ऐसी हो कि प्रत्येक हीरे की चमक उभरकर आए, ठीक उसी प्रकार लघुकथा सृजन में चुने हुए शब्दों को संवेदना की फ्रेम में बड़ी ही कलात्मकता से प्रस्तुत किया जाता है । किसी भी घटना को कथ्य का रूप देने में कथाकार की सृजन क्षमता परिलक्षित होती है । एक साधारण-सी घटना या विषय को रचनाकार इतने आकर्षक रूप में प्रस्तुत कर देता है कि वह हमारे हृदय को स्पर्श करने के साथ-साथ एक गहन संदेश भी प्रस्तुत करती है । दिखने में छोटी लघुकथा का सृजन जीवन- अनुभव के निचोड़ का श्रमसाध्य एवं भावसाध्य रूप होता है । कई बार लघुकथा इतने प्रभावशाली विचार या सन्देश का वहन करती है कि उसका प्रभाव लम्बे अरसे तक पाठक पर बना रहता है । कथाकार के हृदय से निकली संवेदना पाठक तक यदि उसी भाव में पहुँच जाए जैसी कि कथाकार ने अनुभव की है, तब वह एक सफल एवं प्रभावशाली कथा का रूप ले लेती है । यही कारण है कि वर्षों पूर्व रची कुछ रचनाएँ आज भी पाठकों की पहली पसंद बनी है और आधुनिक युग में भी अपने में निहित सन्देश को पाठक तक पहुँचाने में समर्थ है ।
कथा सुनना किसे नहीं भाता, बच्चों से लेकर बूढों तक सभी को कथा पसंद आती है । आज के आपाधापी के युग में ये लघुकथाएँ एक बड़ी कथा के समान रस प्राप्ति कराने में समर्थ है । अपने लघु रूप में निहित गहन अर्थ, सन्देश या विचार को ये लघुकथाएँ बड़ी ही सरलता से सम्प्रेषित करती हैं एवं हर वर्ग के पाठक के बीच अपना स्थान बना लेती है । सभ्यता के विकास के साथ सामाजिक, राजनीतिक आदि परिवर्तनों का प्रभाव हर दशक के साहित्य में साफ़ झलकता है । लघुकथा भी इससे परे नहीं है, गत वर्षों में रची गई लघुकथाओं में कथ्य एवं शिल्प के स्तर पर हुए परिवर्तन को देखा जा सकता है और आज इसका परिवर्तित/ परिमार्जित रूप हमारे समक्ष है । आकाश गंगा रूपी हिन्दी साहित्य में मुझे अनेक लघुकथाएँ पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ । जयशंकर प्रसाद कृत ‘गूदड़ साईं’,सुकेश सहानी कृत ‘ठंडी रजाई’ एवं ‘मेंढकों के बीच’, अभिमन्यु अनत कृत ‘पाठ’ तथा ‘भीख’,रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ कृत ‘छोटे बड़े सपने’ और ‘इंतज़ार’, श्याम सुन्दर अग्रवाल कृत ‘अनमोल ख़जाना’ व ‘वापसी’, सुभाष नीरव कृत ‘एक और कस्बा’, चित्रा मुद्गल कृत ‘रिश्ता’ आदि ऐसी अनेकों लघुकथाएँ हैं, जो मेरे हृदय के निकट है । उल्लिखित सभी लघुकथाएँ पाठक को रस की अनुभूति कराने में सफल हुई है एवं समय की छलनी में छनकर ये रचनाएँ कालजयी बन पड़ी है । प्रतिदिन लघुकथा का वट वृक्ष पल्लवित होता जा रहा है । टेक्नोलॉजी से भरपूर आज के आधुनिक युग में ‘लघुकथा डॉट कॉम’ वेब पत्रिका के माध्यम से भारत में ही नहीं अपितु भारत के बाहर भी घर बैठे करोड़ों पाठक लघुकथाओं का आनंद लेने में समर्थ है । ‘लघुकथा डॉट कॉम’ के लिए ‘मेरी पसंद’ खण्ड के लिए अनेक लघुकथाओं में से किन्हीं दो कथाओं को चुनना बहुत ही कठिन कार्य है जैसे असंख्य टिमटिमाते तारों के बीच किसी दो तारों को चुनना । फिर भी यहाँ पर मैंने मेरी पसंद की दो रचनाओं में से प्रथम – महेश शर्मा द्वारा रचित ‘निशानी’ एवं द्वितीय – सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ कृत ‘प्रोफाइल पिक’ का चयन किया है । दोनों ही रचनाओं का कथ्य आज के युग के अनुरूप समसामयिक एवं हृदयस्पर्शी तो है ही, इसी के साथ यह लघुकथाएँ संवेदना एवं शिल्प के सुंदर समन्वय को भी प्रस्तुत करती है ।
टैटू आज एक फैशन के रूप में काफी प्रचलित है । महेश शर्मा की लघुकथा ‘निशानी’ के कथ्य का आधार यही टैटू है । पुराने ज़माने में मेलों में हाथ पर नाम गोदे जाते थे, उसी ’गोदने’ के नए और एडवांस रूप को टैटू कहा जा सकता है, जिसे भिन्न-भिन्न रंगों और डिजाइनों में शरीर के किसी भी भाग में अंकित किया जाता है । महेश जी ने आज की नई पीढ़ी के साथ पुरानी पीढ़ी के प्रेम को टैटू के प्रतीक के रूप में अपनी लघुकथा में बड़ी ही सहजता के साथ प्रस्तुत किया है । प्रेम में धोखेबाजी नई और पुरानी दोनों पीढ़ियों को प्राप्त होती है और प्रेम की निशानी अर्थात् टैटू को हटा देने का प्रयास दोनों ही करते हैं । आधुनिक युग में यह निशानी पूर्ण रूप से तन से हट जाती है, कोई निशान नहीं बचता ,किन्तु पुरानी पीढ़ी को इससे प्राप्त दाग निशानी के रूप में मिलता है । यह निशानी हृदय में उठी पीड़ा या टीस को प्रदर्शित करती है ।
कथा का आरंभ नाटकीय ढंग से किया गया है – “कोई दस दिन पहले की ही तो बात थी …….अपनी बाँह पर गुदे उस नाम को अलग-अलग कोण से निहारा था । फिर कैसे उसे सहलाया था – और फिर कैसे एकाएक बाँह उठाकर चूम लिया था उसे ।” इस घटना का असर नौकरानी कम्मो पर हुआ और उसके कोमल मनोभावों को इन पंक्तियों से समझा जा सकता है – “उसे लगा कि कोई उसकी कलाई गुदगुदा रहा है ।” इसके घटना के दस दिनों पश्चात् जब कम्मो को जब वह टैटू नहीं दिखता ,तो वह हैरान हो जाती है कि इतनी गाढ़ी स्याही से बनी निशानी गायब कैसे हो सकती है । आखिरकार वह पिंकी बेबी से पूछ ही बैठती है कि वह टैटू कहाँ गायब हो गया । “हमारा ब्रेकअप हो गया – तो मैंने वह टैटू रिमूव करवा लिया” – यह जवाब सुनकर कम्मो सहसा बोल उठना– “हाय राम !- कम्मो के मुँह से सिसकी निकल गई – उसमें तो बड़ा दर्द हुआ होगा ?” इस तरह के सहज, साधारण संवाद से कथा वास्तविक बन पड़ी है । आज की पीढ़ी की पात्र पिंकी बड़ी ही सहजता से टैटू रिमूव करवाने की बात को कह देती है और पिंकी के यह कहने पर कि कोई दर्द नहीं होता और निशान तक नहीं बचता सुनने के पश्चात् – “मानो सैकड़ों चींटियाँ उसकी कलाई में रेंग रही हों ।”- पंक्ति से कम्मो की संवेदनशीलता झलकती है, मानो उसे ही दर्द की अनुभूति हो रही है । दरअसल यह बात उसे उसके बीते जीवन की स्मृतियों में ले जाती है जो कथा के अंत में स्पष्ट होती है ।
कम्मो की कलाई पर पड़े निशान के बारे में पिंकी के पूछने पर पहले तो वह सकपका उठती है और फिर हँसते हुए कहती है –“हमारा भी हो गया था बरेकअप ! तो हमने भी उसका नाम मिटा दिया था……. चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर अपनी कलाई पर रख ली थी – हाय ! पूछो मत बेबी –कित्ता दर्द हुआ था !” कम्मो के दर्द को इन संवादों के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है । कथांत में कम्मो का यह कहना – देखो, नाम तो मिट गया, पर निशान रह गया । कभी-कभी यह कमबखत बहुत टीसता है बेबी !”- कम्मो की हृदय की पीड़ा को व्यक्त करता है, वह निशान देखकर उसे वही सब पुरानी बातें याद आ जाती है, जिसे वह भूल जाना चाहती है । यह साधारण मनोविज्ञान है कि किसी वस्तु के सामने होने पर हम उसे आसानी से भूला नहीं पाते, कम्मो की कलाई पर पड़ा वह निशान रह रहकर उसकी पीड़ा को बढ़ाता है ।
लघुकथा ‘निशानी’ का कथानक प्रवाहमय एवं सम्प्रेषणीय है । जहाँ तक भाषा का प्रश्न है साधारण बोलचाल की भाषा के प्रयोग से भाषा सहज, सरल, भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी बन पड़ी है । एक नौकरानी के पात्र को निभाती कम्मो की भाषा बहुत सहज है । टैटू के स्थान पर ‘टट्टू’, ब्रेकअप के स्थान पर ‘बरेकअप’ का प्रयोग स्वाभाविक लगता है । इसके अतिरिक्त ‘हाय राम !’, ‘दर्द-वर्द’, ‘मुई लेज़र-फेज़र’, ‘कित्ता’ जैसे शब्दों का प्रयोग मनोभावों को अच्छी तरह से संम्प्रेषित करता है । हिन्दी के साथ टैटू, ब्रेकअप, आई मीन, लेज़र बीम, हर्ट, रिमूव, स्कार जैसे अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भाषा की सहजता झलकती है । पूरी लघुकथा को पढ़ने के बाद कथानक का शीर्षक उपयुक्त प्रतीत होता है । “ऐसी गाढ़ी पक्की स्याही से बनी निशानी यूँ गायब कैसे हो गई भला ?” एवं “नाम तो मिट गया, पर निशान रह गया ।” – उपर्युक्त संवाद कथानक के शीषर्क को स्पष्ट करने में सफल है । प्रेम की निशानी किस तरह दर्द की निशानी में परिवर्तित हो जाती है यह बात शीर्षक की सार्थकता को सिद्ध करते हैं । हृदय की पीड़ा और मानवीय संवेदना को इस तरह के नए रूप में पिरोकर कथा कहने का ढंग बहुत ही सुंदर बन पड़ा है । महेश जी की लघुकथा ‘निशानी’ आधुनिक युग के चित्रण के साथ नई-पुरानी पीढ़ियों का संवेदना का अद्भूत समन्वय प्रस्तुत करती है ।
सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथा ‘प्रोफाइल पिक’ में आज के युग की समस्या को चित्रित किया गया है । फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप आदि सोशल मीडिया का उपयोग आज एक आम बात है । हमारे समाज पर सोशल मीडिया के सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव को देखा जा सकता है । आरंभ से लेकर अंत तक पूरी लघुकथा फेसबुक पर चैटिंग करने वाले संवादों को लेकर बुनी गई है । हम सभी इस बात से परिचित है कि आजकल किसी भी घटना के प्रति अपना रोष या लगाव प्रस्तुत करने के लिए लोग अपने-अपने प्रोफाइल पिक बदलते हैं । बस यही कथा की विषयवस्तु है । ‘प्रोफाइल पिक’ आधुनिक समाज में आज की समस्याओं एवं घटती संवेदना के सम्मिश्रण को रेखांकित करती है ।
लघुकथा के आरंभ की पंक्तियों में – “कुछ सुना आपने फिर एक आठ साल की बच्ची के साथ….” को पढ़कर पाठक के मन में एक संवेदना के साथ उत्सुकता का भाव जाग्रत होता है । इसके जवाब में –“ओह …गॉड बहुत ही दुःखद !!” – कहना एक सहज स्वाभाविक जवाब है, जो कि एक आम मानव से अपेक्षित है । दो लोगों के बीच होते संवादों से कथा आगे बढ़ती जाती है । आज के युग में इस तरह की कई अमानवीय एवं शर्मनाक घटनाएँ प्रतिदिन घटती जा रही है और सोशल मीडिया पर इस तरह के संवादों को देखा जा सकता है । यही कारण है कि इस कथा को पढ़ने समय पाठक को लगता है कि यह उसके आस-पास की घटना है और पाठक के मन में सहजता का भाव बना रहता है जो उसे कथा से जोड़े रखता है ।
घटना का विवरण लेने के पश्चात् इस घटना के खिलाफ खड़े होने के लिए अपना प्रोफाइल पिक ब्लैक रखना मानवीय संवेदनशीलता को प्रदर्शित करता है – “सुनिए कल फेसबुक पर सभी महिलाओं ने निर्णय लिया है – अपना प्रोफाइल पिक ब्लैक रखने को, अच्छा आप भी चेंज कर लीजिएगा ।” संवेदना के साथ मानवीय आदर्श प्रस्तुत करता अगला संवाद देखिए – “जी, जरूर हम सभी इस घटना के खिलाफ खड़े होंगे ।” इस विचार से प्रतीत होता है कि मानवता आज भी जीवित है । “कितनी देर लगानी है”- के जवाब में –“चौबीस घंटे तो रखनी ही चाहिए ।” – में फेसबुकियों की बाध्यता झलकती है, जैसे कुछ घंटों के लिए ये लोग अपनी प्रोफाइल पिक बदलने के लिए बाध्य हो गए हैं । चौबीस घंटे की अवधि सुनकर राहत की साँस लेते हुए पात्र का यह कहना – “चलो फिर तो ठीक है । दरअसल आज ही अपने हनीमून से लौटी हूँ । वहाँ की ढेरों फ़ोटोज हैं, सोच रही हूँ, रोज एक नई प्रोफाइल पिक लगाऊँ ।” दरअसल अभी-अभी हनीमून से लौटी मोहतरमा प्रतिदिन अपनी प्रोफाइल पिक बदलना चाहती है, आम जीवन में भी इस तरह के अनेक लोग है जो सिर्फ बाध्य होकर ही प्रोफाइल पिक ब्लैक रखते हैं । आजकल लाइक और कमेंट की गिनती तो लोगों की एक आम आदत के रूप में विकसित हो चली है, जिसकी गिनती से आपको पता चलता है कि आप की पोस्ट को लोग कितना पसंद कर रहे हैं । यह बात इस संवाद से प्रस्तुत होती है – “नहीं भई डालूँगी तो फेसबुक पर आखिर लाइक-कमेंट की गिनती का सवाल है । हा-हा” । कथांत की अंतिम पंक्ति देखिए – “और हनीमून की खूबसूरत बातों के बीच जाने कहाँ दफ़न हो गई थी रेप पीड़िता की गूँगी फरियाद …….शायद ब्लैक प्रोफ़ाइल पिक के अँधेरे गलियारों में ……..” उपर्युक्त पंक्ति पीड़िता से सहानुभूति रखने वाले इन लोगों के वास्तविक चित्रण प्रस्तुत करती है । लोगों में घटती संवेदना को प्रस्तुत करती यह पंक्ति कथा के शीर्षक को सार्थक करती है । वास्तव में यह आज के आधुनिक जीवन की सामान्य समस्या है । दिन प्रतिदिन लोगों में संवेदना का गिरता स्तर इस कथा में साफ़-साफ़ चित्रित हुआ है । अपना प्रोफाइल पिक ब्लैक रख लेना,किसी भी घटना के प्रति अपना रोष प्रस्तुत करना सिर्फ़ एक दिखावा है, लोग बस भेड़चाल चल रहे हैं । ब्लैक प्रोफाइल पिक मानवीय संवेदना को नहीं बल्कि आज के यथार्थ में होते संवेदना के ह्रास को प्रस्तुत करती है । कथा की अंतिम पंक्ति में यह स्पष्टीकरण हो जाता है कि इन ब्लैक प्रोफाइल पिक के अँधेरे में ही उस रेप पीड़िता की फरियाद गुम हो चुकी है । यह इस बात को प्रदर्शित करता है कि इस तरह से सिर्फ प्रोफ़ाइल पिक बदलने से ही समाज में बदलाव संभव नहीं ।
‘प्रोफ़ाइल पिक’ का कथानक प्रवाहमय है और आरंभ से अंत तक आपको बाँधे रखता है । चैटिंग वाले संवादों से कथा की शिल्प संरचना सरल, सहज एवं संप्रेषणीय हो गई है । साधारण चैटिंग वाले भावपूर्ण संवादों के माध्यम से सत्या जी ने एक बहुत गहन विचार को प्रस्तुत किया है । ‘निशानी’ लघुकथा की तरह ही साधारण बोलचाल की भाषा के साथ अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग ‘प्रोफाइल पिक’ लघुकथा में भी देखा सकता है । हैलो, ओह गॉड, शिट, हनीमून, मैसेज बॉक्स, लाइक, कमेंट आदि जैसे अंग्रेज़ी शब्दों के साथ कथा का शीर्षक ‘प्रोफ़ाइल पिक’ भी अंग्रेजी शब्द ही है, जो की बड़ा ही सहज स्वाभाविक एवं आज के युग के अनुरूप होने के साथ कथा के शीर्षक के रूप में सटीक बैठता है । बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत की गई यह लघुकथा आज के यथार्थ पर गहरा प्रहार करती है।
आधे-पौने पृष्ठ की ये लघुकथाएँ आपको अंदर तक झिंझोड़ देती है और आपको विचार करने पर मजबूर कर देती है । कथाकार का दायित्व है कि वह आपको सत्य तक ले जाए उसके पश्चात् आप कितने गहरी पैठ तक पहुँच पाते हैं यह आपकी संवेदनशीलता पर निर्भर करता है । इन दोनों ही लघुकथाओं में लेखक आपके मष्तिष्क एवं हृदय पर पूर्ण रूप से कब्ज़ा करने में एवं आपको लंबे समय तक प्रभावित करने में समर्थ है ।
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निशानी- महेश शर्मा
कोई दस दिन पहले की ही तो बात थी, जब कम्मो ने पोंछा लगाते हुए देखा था कि कैसे, आईने के सामने खड़ी पिंकी बेबी ने, अपनी बाँह पर गुदे उस नाम को अलग-अलग कोण से निहारा था। फिर कैसे उसे सहलाया था – और फिर कैसे एकाएक बाँह उठाकर चूम लिया था उसे।
-‘‘हाय, कितना प्यारा गोदना था! कितनी सुंदर लिखावट थी!’’ कम्मो अपलक देखती रह गई थी। उसे लगा था कि कोई उसकी कलाई गुदगुदा रहा है।
लेकिन आज! पिंकी की बाँह से वह नाम ऐसे नदारद है, मानो वहाँ कभी था ही नहीं। कम्मो हैरान है कि ऐसी गाढ़ी पक्की स्याही से बनी निशानी, यूँ गायब कैसे हो गयी भला?
‘‘आपका वह टट्टू कहाँ गया बेबी?’’ उससे रहा नहीं गया तो पूछ बैठी।
‘‘टट्टू नहीं टैटू’’ पिंकी खिलखिलाकर हँस पड़ी-‘‘अरे कम्मो आंटी, वह क्या है न कि हमारा ब्रेकअप हो गया है-तो मैंने वह टैटू रिमूव करवा लिया – आई मीन हटवा दिया।’’
‘‘हाय राम! -’’ कम्मों के मुँह से सिसकी निकल गई -‘‘उसमें तो बड़ा दर्द हुआ होगा?’’
‘‘अरे आजकल कोई दर्द-वर्द नहीं होता आंटी’’- पिंकी ने लापरवाही से कंधे उचकाए -‘‘लेज़र बीम से आसानी से मिट जाता है, बस थोड़ा-सा हर्ट होता है; लेकिन देखो, निशान तक नहीं बचता।’’
कम्मो चुपचाप पोंछा लगाने लगी। उसे ऐसा महसूस हुआ, मानों सैकड़ों चींटियाँ उसकी कलाई में रेंग रही हों।
‘‘अरे आंटी मैं कई दिनों से पूछना चाह रही थी कि आपकी रिस्ट पर यह स्कार -आई मीन – यह दाग़ कैसा है?’’
पिंकी के इस सवाल पर कम्मों पहले तो सकपका गई, फिर एकाएक हँस पड़ी -‘‘वह क्या है न बेबी कि हमारा भी हो गया था बरेकअप! तो हमने भी उसका नाम मिटा दिया था। बरसों पहले गाँव के मेले में गुदवाया था उसे। लेकिन कमबख्त धोखेबाज़ निकला, तो उसी रात चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर अपनी कलाई पर रख ली थी -हाय ! पूछो मत बेबी-कित्ता दर्द हुआ था !’’
सहसा उसकी हँसी फीकी पड़ने लगी -‘‘काश, हमारे ज़माने में भी यह मुई लेज़र-फेज़र होती। देखो, नाम तो मिट गया, पर निशान रह गया। कभी-कभी यह कमबखत बहुत टीसता है बेबी!’’
प्रोफाइल पिक-सत्या शर्मा
नीना ने अभी फेसबुक खोला ही था कि मैसेज बॉक्स में मैसेज आया .. ” हैलो कैसी हैं ”
”
मैं अच्छी हूँ और आप ?”
” मैं भी ठीक हूँ , कुछ सुना आपने फिर से एक आठ साल की बच्ची के साथ ……….”
” ओह… गॉड बहुत ही दुःखद !!”
“आदमी तो बस जानवर ही बनता जा रहा है ।”
” कब की घटना है ?”
“कल रात की ही है, फिर हैवानों ने मार कर फेंक भी दिया।”
” शिट ….बहुत ही हृदय विदारक है ये सब।”
“अच्छा! सुनिए कल फेसबुक पर सभी महिलाओं ने निर्णय लिया है-अपना प्रोफाइल पिक ब्लैक रखने को , आप भी चेंज कर लीजिएगा।”
“जी,ज़रूर हम सभी इस घटना के खिलाफ खड़े होंगे। “
और फिर नई पुरानी कईं बातें होती रहीं ।
“अच्छा एक पूछूँ? अन्यथा न लीजिएगा।”
“हाँ पूछिये न। “
” कितनी देर लगानी है ?”
” चौबीस घण्टे तो रखने ही चाहिए।”
“चलो फिर ठीक है । दरअसल आज ही अपने हनीमून से लौटी हूँ॥ वहाँ की ढेरों फ़ोटोज हैं, सोच रही हूँ, रोज़ एक नई प्रोफाइल पिक लगाऊँ।”
“अच्छा जी,इसीलिए इतने दिनों से गायब थी । हा ….हा…”
“अरे , फिर कुछ भेजिए न मैसेज बॉक्स में ,मैं भी तो देखूँ , भाई साहब कैसे हैं ।”
“नहीं भई डालूँगी तो फेसबुक पर ही आखिर लाइक-कमेंट की गिनती का सवाल है ।”
और हनीमून के खूबसूरत बातों के बीच जाने कहाँ दफन हो गई थी रेप पीड़िता की गूँगी फरियाद ……. शायद ब्लैक प्रोफाइल पिक के अँधेरे गलियारों में …….