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Channel: मेरी पसन्द –लघुकथा
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सर्वप्रिय विधा

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      एक समय ऐसा भी था जब अकेली कविता ही साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा होती थी। आज के इलैक्ट्रॉनिक युग में कविता का यह गौरवशाली पद गज़ल ने हथिया लिया है। परन्तु पिछले कुछ समय से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का अवलोकन यदि ध्यान से किया जाए तो आप पाएँगे की ‘लघुकथा‘ ने गज़ल को पीछे धकेलकर अपनी सम्प्रभुता स्थापित करने  में सफलता हासिल कर ली है। यह आश्चर्य की बात नहीं तो क्या है कि लघुकथा पर केद्रित ‘लघुकथा वृत्त‘ नामक समाचार पत्र तक निकलने लगा है। कईं इलैक्ट्रोनिक पत्रिकाओं के अतिरिक्त अन्य पत्रिकाएँ भी धड़ल्ले से हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं। इधर लघुकथा पर केन्द्रित एक और पत्रिका ‘लघुकथा कलश‘ ने लेखकों तथा पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। पटियाला से प्रकाशित होने वाली इस महाकाय पत्रिका का सम्पादन प्रभाकर बन्धु (योगराज एवं रवि) के द्वारा किया जाता है। हंस तथा कथादेश जैसी शीर्षस्थ पत्रिकाएँ भी लघुकथा को सम्मानपूर्वक प्रकाशित कर रही हैं। यह सब लघुकथा की लोकप्रियता का जीता जागता उदाहरण है।

       लघुकथा डॉट कॉम के लोकप्रिय स्तंभ ‘मेरी पसंद‘ की यदि बात करूँ, तो इसके माध्यम से बहुत से रचनाकारों ने अपनी-अपनी पसन्द की लघुकथाओं को चुनकर उनकी सुगन्ध यत्र-तत्र बिखेरने का प्रयत्न किया है। मैं जब अपने भीतर झाँकने का प्रयत्न करता हूँ तो पाता हूँ कि बहुत-सी लघुकथाएँ मुझे अनेक कारणों से बहुत अच्छी लगती हैं। ऐसी लघुकथाओं में सुकेश साहनी की ‘बैल‘ तथा ‘ईश्वर‘, अशोक भाटिया की ‘स्त्री कुछ नहीं करती‘ तथा ‘रिश्ते‘, रामेश्वर काम्बोज की ‘ऊँचाई‘ और ‘नवजन्मा‘, बलराम अग्रवाल की ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ‘ तथा ‘गौ भोजन कथा‘, भगीरथ की ‘पेट सबके हैं‘, रूप् देवगुण की ‘जगमगाहट‘ तथा ‘दूसरा सच‘, मधुदीप की ‘संन्यास‘ तथा ‘मज़हब‘, कमल चोपड़ा की ‘खेल‘ तथा ‘खेलने के दिन‘, अरुण कुमार सैनी की ‘स्कूल‘ तथा ‘गाली‘, राधेश्याम भारतीय की ‘कीचड़ में कमल‘ तथा ‘चेहरे‘। इनके अतिरिक्त प्रताप सिहं सोढ़ी, सतीश राठी, सतीश राज पुष्करणा, पवन शर्मा, शील कौशिक, इन्दु गुप्ता, उमेश महादोषी, मार्टिन जॉन, योगराज प्रभाकर, सुभाष नीरव, सुरेन्द्र गुप्त, सूर्यकान्त नागर, रामकुमार घोटड़, श्यामसुन्दर अग्रवाल तथा रामयतन यादव जैसे लघुकथाकारों की यत्र-तत्र प्रकाशित होने वाली लघुकथाएँ भी मार्मिक होती हैं। पाठक जहाँ सआदत हसन मण्टो तथा खलील जिब्रान को कभी नहीं भूल सकता वहीं और भी बहुत से लेखक हैं जिनकी कोई न कोई रचना हमेशा दिमाग में बनी रहती है।

       सुकेश साहनी आज के युग के अत्यन्त महत्त्त्पूर्ण एवं स्तरीय लघुकथा लेखक हैं। उनकी रचनाओं के बीच से गुज़़रते हुए ऐसा बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है। उनके लघुकथा लेखन की एक और विशेषता है कि वे स्वयं को समय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल पाने में समर्थ बनाए हुए हैं। ‘हंस‘ के फरवरी 2019 अंक में प्रकाशित उनकी लघुकथा ‘फेस टाइम‘ को पढ़कर आप मेरी इस बात से सहमत हुए बिना नहीं रह पाएँगे। लेकिन कथादेश के जनवरी अंक में प्रकाशित उनकी ‘अथ विकास कथा‘ ने मुझे इस कदर प्रभावित किया कि मैं उसे अपनी पसंद की लघुकथा स्वीकार करते हुए उस पर टिप्पणी कर रहा हूँ।

       सर्वप्रथम इस लघुकथा के शीर्षक पर विचार किया जाए। विद्वानों का मानना है कि शीर्षक जितना छोटा हो उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है। ‘अथ विकास कथा‘ में से यदि ‘अथ‘ शब्द हटा दिया जाए तो ‘विकास कथा‘ शीर्षक बचा रहता है। विकास कथा भी एक बढ़िया शीर्षक है। लेकिन कथा के अनुसार विकास-यात्रा तो शुरू ही हुई है। यह यात्रा निरन्तर जारी रहने वाली है। संभव है भविष्य में इस यात्रा का मार्ग परिवर्तित हो जाए, अथवा इसका मंतव्य ही बदल जाए। ऐसे में आप विकास को भी और ही कुछ कहने लगें। रचना का विषय भ्रष्टाचार को उजागर करना है। सिर्फ उजागर ही नहीं करना ,बल्कि भ्रष्टाचार आपके दिल और दिमाग में काँटे की तरह चुभने लगे, उसे ऐसा रूप प्रदान करना है। भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है जो नासूर की तरह लाइलाज बनता जा रहा है। लेखक एक कुशल और अनुभवी चिकित्सक की तरह अपने ढंग से इस रोग का इलाज करता है। जिसका नाम इलाज नहीं होता, उसका नाम थैरेपी हो सकता है। इस थैरेपी के माध्यम से रोग धीरे-धीरे मूलसहित नष्ट होने लगता है ,यही तरीका साहनी जी अपनाते हैं। भ्रष्टाचार शब्द का उन्होंने एक बार भी प्रयोग नहीं किया है। हालाँकि यह एक भ्रष्टाचार कथा है, एक ऐसा भ्रष्टाचार जो दीमक की तरह इस देश की जड़ें खोखली कर रहा है। लघुकथा पढ़ते हुए लगता है कि पूरी घटना हमारी आँखो के सामने घट रही है। हम स्वयं उस घटना के अकेले उस पात्र जैसे हैं। इस भ्रष्टाचार कथा को कहने के लिए एक महाकाय उपन्यास लिखा जा सकता है तथा कहानी तो दस पंद्रह पृष्ठ की आसानी से लिखी ही जा सकती है। परन्तु साहनी जी ने उसे सिर्फ 214 शब्दों में समेट दिया। जो बात जीवन्त उपन्यास अथवा कहानी के द्वारा शायद ही कही जा सकती, उसे साहनी जी ने कुछ ही शब्दों में वांछित प्रभाव के साथ कह कर अपनी योग्यता एवम् क्षमता का परिचय दे डाला। अतः आकार की दृष्टि से भी रचना पूर्णतः सफल है। एक भी शब्द इस रचना में न तो कम है न ज़्यादा। पाठक चाहें तो इसके प्रारूप मंे अपनी रुचि के अनुसार इसमें शब्द को जोड़ अथवा घटाकर स्वयं देख ले। उसका मन कह उठेगा कि उसने जो भी किया है, उससे रचना का रूप बिगड़ गया है। जिस तरह कनिष्ठ कर्मचारी संकेत-संकेत में वरिष्ठ अधिकारी को समझाया करता है, उसका मौलिक रूप यहाँ देखने को मिलता है। जिस पैसे से नई सड़कें बननी थी, नए पुल बनने थे, टूट-फूट को रोेककर भवन अथवा सड़क की आयु बढ़ानी थी, जनपथों को मूलभूत सुविधा प्रदान करनी थी, उस पैसे का उपयोग सम्बन्धित छोटे-बड़े अधिकारियों के पेट का विकास करने में निःसंकोच किया जाता है, उनके परिवारों का विकास होता है। साहनी जी चित्रात्मक शैली के पारंगत रचनाकार हैं। इस विशेषता का उपयोग वे लगभग हर रचना में करते हैं। रचना का अध्ययन करते करते पाठक को अनुभव होने लगता है कि वह किसी कला फिल्म का एक सुंदर-सा दृश्य अपनी आंखो के सामने देख रहा हैं यही वजह है कि रचना की समाप्ति के पश्चात् भी पाठक के मस्तिष्क में उस चित्र की अनुकृति बनी रहती है। अतः यह लघुकथा एक आदर्श लघुकथा है।        

              मेरी पसन्द की दूसरी लघुकथा का नाम है-ज़ायका। इस लघुकथा के लेखक किसी परिचय के मोहताज नहीं रह गए हैं। अभी-अभी रचनाकार डॉट आर्ग ने लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया था। उस प्रतियोगिता में इनकी इस लघुकथा को दूसरा स्थान मिला है। हालाँकि प्रतियोगिता में पुरस्कृत अन्य लघुकथाओं को मैं पढ़ नहीं पाया हूँ। सम्भव है उन लघुकथाओं को पढ़ने के बाद मैं इसे अपनी पसन्द की लघुकथा भी नहीं बना पाता। परन्तु इस लघुकथा के अंत ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं इसे अपनी पसन्द में दूसरा स्थान दूँ। ‘जायका‘ को पढ़ते हुए शुरू में मुझे लगा कि अल्ट्रामॉडर्न परिवार की बात कर रहे हैं। एक साधारण पाठक, जो यह सब जानता ही नहीं है, उसे क्या मिलेगा? क्यों वह इस लघुकथा को पढ़ेगा? मैं उसे बीच में ही छोड़ने वाला था। लेकिन मैं जानता था कि इस लघुकथा को एक प्रतियोगिता में दूसरा स्थान मिल चुका है। निर्णायक इतने बेवकूफ नहीं हो सकते कि यूँ ही फोकट में पुरस्कार दे डालें। अन्त तक पहुँचते ही मैं सन्न रह गया। डिलीवरी ब्वाय जो मामूली-सी मजदूरी प्राप्त करने के लिए दरदर भटक रहा है, अपने ऊपर चोरी से चीजें खाने का आरोप लगते ही कह उठता है कि वह तो माँ के हाथ का बना खाना खाता है। माँ के हाथ से बने खाने को छोड़कर वह ऐसी वैसी चीज क्यों खाएगा! हठात् मुझे अपनी ही एक कविता याद आ गई कि-

       घर से बहुत दूर आ गया हूँ मैं

       अकेला होकर भी

       अकेला नहीं हूँ मैं यहाँ; 

       क्योंकि माँ के हाथ की बनी

       खाने की कुछ चीजंे मेरे पास हैं

       बासी जरूर हो गई हैं वे

       लेकिन अब भी उनमें वही स्वाद है!

       माँ के हाथ के बने खाने को आधुनिक परिवार में याद दिलाना, उसकी पुनःस्थापना करना यही इस लघुकथा को यादगार लघुकथा बना देता है। संभव है कुछ अल्टामॉडर्न पाठकों को इस लघुकथा का विषय अत्यंत पिछड़ेपन की निशानी लगे;क्यांेकि परिवार में रेडीमेड फास्ट फूड ऑर्डर देने पर कुछ ही समय में हाजिर हो जाता है। महेश शर्मा नाटककार हैं। लघुकथा में भी छोटे चुटीले संवादो वाली नाटकीयता मौजूद है। साहनी जी की तरह महेश जी भी चित्रात्मक शैली का खूब उपयोग करते ह। रचना अत्यंत प्रामाणिक लगने लगती है। शीर्षक लघुकथा के उद्देश्य के अनुसार सार्थक है। रचना के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने में सक्षम है। भाषा विषयानुरूप है। आकार की दृष्टि से भी लघुकथा वास्तव में ही लघुकथा है। आरंभ से लेकर अंत तक जिज्ञासा बनी रहती है। मुझे मालूम है कि महेश जी लघुकथाएँ कम लिखते हैं; लेकिन जो भी लिखते हैं बहुत ही स्तरीय एवं पठनीय होता है। बधाई !

1-अथ विकास कथा- सुकेश साहनी

बड़े साहब के चेम्बर में बड़े बाबू विकास सम्बंधी कार्यों के बिल पारित करवा रहे थे। ब्रीफिंग के लिए छोटे साहब भी वहाँ मौजूद थे।

            ‘‘यह बिल किस काम का है?’’ बीस लाख के एक बिल पर हस्ताक्षर करने से पहले बड़े साहब ने जानना चाहा।

            ‘‘सर, यह बिल उस पीरियड से सम्बंधित कार्यों का है, जब माननीय मंत्री जी क्षेत्रीय निरीक्षण पर आए थे।’’

            ‘‘ग्राम मेवली में कुछ ज्यादा ही खर्च नहीं हो गया?’’ अगले बिल को देखते हुए बड़े साहब ने पूछा।

            ‘‘नहीं सर! दीवाली पर प्रमुख सचिव महोदय से आपकी जो वार्ता हुई थी, उसी के अनुसार बिल तैयार कराए गए हैं।’’

            ‘‘ये छोटे-छोटे कई बिल……?

            ‘‘ये सभी बिल चीफ साहब से सम्बंधित है, जब नैनीताल से लौटते हुए उन्होंने तीन दिन हमारे क्षेत्र में आकस्मिक निरीक्षण हेतु हाल्ट किया था।’’

            ‘‘हमारी बेटी की शादी भी करीब आ गई है….’’ बड़े साहब ने अर्थपूर्ण ढंग से छोटे साहब की ओर देखा।

            ‘‘पूरी तैयारी है, सर!’’ छोटे साहब ने उत्साह से बताया और बड़े बाबू ने तत्काल एक बिल बड़े साहब के सामने हस्ताक्षर हेतु रख दिया।

            ‘‘इन बिलों को शामिल करते हुए क्षेत्र के विकास के लिए प्राप्त कुल धनराशि के विरूद्ध खर्चे की क्या स्थिति है?’’

            ‘‘शत प्रतिशत!’’ छोटे साहब ने चहकते हुए बताया।

            ‘‘एक्सीलेंट जॉब!’’ बड़े साहब ने शाबाशी दी।

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2-ज़ायका -मार्टिन  जॉन ( इसी अंक में देश के अन्तर्गत )

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