गद्य साहित्य की सशक्त विधाओं में लघुकथा का अपना विशिष्ट स्थान है। पाठकों की वरीयता का आंकलन किया जाए तो वर्तमान में ‘लघुकथा’ साहित्य की मुख्यधारा में दस्तक देती प्रतीत होती है, अलग-अलग भाषाओं में लघुकथाओं का अनुवाद इसका जीता जागता प्रमाण है।
साहित्य की कोई भी विधा समकालीन जीवन संदर्भों एवं समसामयिक सामाजिक मान्यताओं से अछूती नहीं हो सकती। सामाजिक सरोकार,जीवन शैली,मानवीय सोच व आपसी सम्बन्ध साहित्य को प्रभावित करते ही हैं।
आज लघुकथा का उद्देश्य समाज को शिक्षात्मक संदेश या संस्कार देने तक ही सीमित नहीं है अपित् आज इनका उद्देश्य जीवन की स्थिति-परिस्थिति, व्यवस्था, विकृतियों का यथार्थ चित्रण करना भी है।
साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा में भी समाज व संस्कृति का अन्तर्सम्बन्ध , भौतिकवाद, नैतिक मूल्यों का हनन, बिखरते पारिवारिक रिश्ते, स्त्री का बाजारीकरण , जातीय अहंकार, दलित विमर्श, संवेदनहीनता, हिंसा, प्रतिशोध, छुआछूत जैसे अनेक सामाजिक सरोकार परिलक्षित होते हैं।
पाठक के रूप में पाता हूँ कि एक सशक्त लघुकथा में पाठक को बाँधे रखने की क्षमता दूसरी विधाओं की तुलना में कहीं अधिक होती है। ऐसी लघुकथाएँ पाठक के मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। ऐसी बहुत-सी लघुकथाएँ हैं जिनसे मैं बहुत प्रभावित हुआ और उन्हें बार-बार पढ़ने के बावजूद कभी ऊब महसूस नहीं करता। इस श्रेणी में श्री सुकेश साहनी की लघुकथा ‘गोश्त की गंध और श्री पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथा ‘कथा नहीं’ को अपने दिल के बहुत करीब पाता हूँ ।
सुकेश साहनी की लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ प्रतीकात्मक लघुकथा है। यह लघुकथा दामाद देवोभव परंपरा का खंडन करती है। इस लघुकथा में ससुराल पक्ष आर्थिक तंगहाली के बावजूद भी दामाद के आतिथ्य में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। लघुकथा का कथ्य सामान्य है परन्तु उसका निर्वहन, शिल्प व संवाद इस लघुकथा को उत्कृष्ट लघुकथा की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। दामाद अपने ससुराल पक्ष की चरमराती आर्थिक दशा का सांकेतिक वर्णन करता है।
‘‘वह अपने साले के इस उम्र में भी पिचके गालों और अस्थिपंजर-से शरीर को हैरानी से देखता रह गया।’’
कमरे के बदंरग दरवाजे व झड़ता प्लास्टर, जर्जर सोफा आर्थिक तंगहाली की ओर इशारा करते हैं। सुकेश जी ने गोश्त का प्रतीकात्मक प्रयोग बहुत कलात्मक ढंग से किया है।
‘‘ससुर महोदय पूरी आस्तीन की कमीज पहनकर बैठे हुए थे, ताकि वह उनके हाथ से उतारे गए गोश्त रहित भाग को न देख सके।…उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था, पर ऐसा करने से गालों में पड़ गए गड्ढों को नहीं छिपा सके थे।’’
दामाद के सत्कार में ससुराल पक्ष अपना श्रेष्ठ करने को तत्पर है परन्तु वे अपनी आर्थिक दशा छुपाने में नाकाम प्रतीत होते हैं।
यह लघुकथा किसी चलचित्र की भाँति आगे बढ़ती है। कथा में दामाद के द्वारा कहे गए शब्द ‘‘मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना माँस परोसना बंद कीजिए।” जो कथा का अंतिम संवाद घुटन में जी रहे ससुराल वालों के लिए किसी ठंडी हवा के झोंके के समान है। कथा सांकेतिक रूप से एक आदर्श जमाई की छवि प्रस्तुत करती है। सुकेश जी की लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ शिल्प, बुनावट व भाषायी सौष्ठव के आधार पर एक उत्कृष्ट लघुकथा है।
पृथ्वीराज अरोड़ा जी की लघुकथा ‘कथा नहीं’ तंगहाली में जीवन यापन कर रहे पुत्र व बीमार परन्तु समृद्ध पिता की एक व्यथा कथा है। बीमार पिता का दर्द है कि पुत्र उनकी सेहत पर ध्यान नहीं देता, वहीं पर पुत्र की शिकायत है-
‘‘सूद का लालच न करके मुझे कुछ बना देते, तो मैं इनकी सेवा के लायक न बन पाता।’’
माँ और बहन भी पुत्र पर धावा बोलती है-
‘‘इनका इलाज क्यों नहीं करवाया।’’
सभी की उम्मीदें पुत्र से हैं।
पिता पुत्र से अपनी अपेक्षाएँ बाँधे हुए है परन्तु पुत्र के आर्थिक हालात पर उसकी संवेदनाएँ नगण्य हैं।
यह कथा बिखरते पारिवारिक सम्बन्धों, रिश्तों में अपेक्षाओं, शिकायतों को पाठक के समक्ष खोलकर रख देती है।
कथा के अंत में बेटा अपना दाँतों का नकली सैट मेज पर रखकर दुख और आक्रोश से भरकर सिसकियों के साथ बाथरूम चला जाता है। पृथ्वीराज अरोड़ा ने पुत्र के चेहरे के लिए उपमान का प्रयोग किया है। ‘बुझते-जलते आक्रोश के भाव उसके अंदर हिलोरे मारते अवसाद का परिचायक है। कथाकार सारी कथा में किसी भी पात्र का पक्षधर नहीं है परन्तु संवादों के प्रहार के आधार पर वह चरित्रों का मूल्यांकन पाठक पर छोड़ देता है।
बिना किसी कथा के यह कथा संवादों के माध्यम से एक कथानक बुनती है। कथा पाठक के मन में पारिवारिक व सामाजिक सरोकारों को लेकर एक संवेदना का समावेश करती है। संवाद शैली में रची गई अरोड़ा जी की यह एक सशक्त लघुकथा है।
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1-गोश्त की गंध
सुकेश साहनी
दरवाजा उसके बारह वर्षीय साले ने खोला और सहसा उसे अपने सामने देखकर वह ऐसे सिकुड़ गया जैसे उसके शरीर से एक मा़त्र नेकर भी खींच लिया गया हो। दरवाजे की ओट लेकर उसने अपने जीजा के भीतर आने के लिए रास्ता छोड़ दिया। वह अपने साले के इस उम्र में भी पिचके गालों और अस्थिपिंजर-से शरीर को हैरानी से देखता रह गया।
भीतर जाते हुए उसकी नजर बदरंग दरवाजों और जगह-जगह से झड़ते प्लास्टर पर पड़ी और वह सोच में पड़ गया। अगले कमरे में पुराने जर्जर सोफे पर बैठे हुए उसे विचित्र अनुभूति हुई। उसे लगा बगल के कमरे के बीचोंबीच उसके सास ससुर और पत्नी उसके अचानक आने से आतंकित होकर काँपते हुए कुछ फुसफुसा रहे हैं।
रसोई से स्टोव के जलने की आवाज आ रही थी। एकाएक ताजे गोश्त और खून की मिली जुली गंध उसके नथुनों में भर गई। वह उसे अपने मन का वहम समझता रहा पर जब सास ने खाना परोसा तो वह सन्न रह गया। सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिल्कुल ताजा टुकड़े तैर रहे थे। बस, उसी क्षण उसकी समझ में सब कुछ आ गया। ससुर महोदय पूरी आस्तीन की कमीज पहनकर बैठे हुए थे,ताकि वह उनके हाथ से उतारे गए गोश्त रहित भाग को न देख सके। अपनी तरफ से उन्होंने शुरू से ही काफी होशियारी बरती थी। उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था,पर ऐसा करने से गालों में पड़ गए गड्ढ़ों को नहीं छिपा सके थे। सास भी बड़ी चालाकी से एक फटा-सस्ता दुपट्टा ओढ़े बैठी थी ताकि कहाँ-कहाँ से गोश्त उतारा गया है, और समझ न सके। साला दीवार के सहारे सिर झुकाए उदास खड़ा था और अपनी ऊँची-ऊँची नेकर से झाँकती गोश्त रहित जाँघों को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था। उसकी पत्नी सब्जी की प्लेट में चम्मच चलाते हुए कुछ सोच रही थी।
‘‘राकेश जी, लीजिए….लीजिए न!’’अपने ससुर महोदय की आवाज उसके कानों में पड़ी।
‘‘मैं आदमी का गोश्त नहीं खाता!’’ प्लेट को परे धकेलते हुए उसने कहा। अपनी चोरी पकड़े जाने से उनके चेहरे सफेद पड़ गए थे।
‘‘क्या हुआ आपको? ….सब्जी तो शाही पनीर की है!’’…..पत्नी ने विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए कहा।
‘‘बेटा, नाराज मत होओ….हम तुम्हारी खातिर में ज्यादा कुछ कर नहीं….’’ सास ने कहना चाहा।
‘‘देखिए, मैं बिल्कुल नाराज नहीं हूँ।’’ उसने मुस्करा कर कहा, ‘‘मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना मांस परोसना बन्द कीजिए।जो खुद खाते हैं, वही खिलाइए। मैं खुशी-खुशी खा लूँगा।’’
वे सब असमंजस की स्थिति में उसके सामने खड़े थे। तभी उसकी नजर अपने साले पर पड़ी । वह बहुत मीठी नजरों से सीधे उसकी ओर देख रहा था। सास-ससुर इस कदर अचंभित थे, जैसे एकाएक किसी शेर ने उन्हें अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया हो। पत्नी की आँखों से आँसू बह रहे थे। यह सब देखकर उसने सोचा….काश ये गोश्त की गंध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गई होती!
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2-कथा नहीं। पृथ्वीराज अरोड़ा
वह पेशाब करके फिर बातचीत में शामिल हो गया।
दीदी ने कहा, ‘‘पिताजी को बार–बार पेशाब आने की बीमारी है, इनका इलाज क्यों नहीं करवाया?’’
उसने स्थिति को समझा। फिर सहजभाव में बोला, ‘‘मैं अलग मकान में रहता हूँ, मुझे क्या मालूम इन्हें क्या बीमारी है?’’
माँ बीच में बोली, ‘‘तो क्या ढिंढोरा पिटवाते?’’
उसने माँ की बात को नजरअन्दाज करते हुए कहा, ‘‘देखो दीदी, अगर यह बताना नहीं चाहते थे तो खुद ही इलाज करवा लेते।’’ थोड़ा रुककर आगे कहा, ‘‘इन्होंने बहुत सूद पर दे रखे हैं, पैसों की कोई कमी नहीं इन्हें।’’
पिता चिढ़े–से बोले, ‘‘जवान बेटे के होते इस उमर में डॉक्टर के पीछे–पीछे दौड़ता?’’
इस हमले को तल्खी में न झेलकर उसने गहरा व्यंग्य किया, ‘‘आप सुबह–शाम मीलों घूमते हैं, मुझसे अधिक स्वस्थ हैं, फिर डॉक्टर के पास क्यों नहीं जा सकते थे?’’
दीदी ने चौंककर देखा। आनेवाली विस्फोटक स्थिति पर नियंत्रण करने की ग़रज़ से बीच में ही दखल दिया, ‘‘आखिर माँ–बाप भी अपनी संतान से कुछ उम्मीद करते ही हैं।’’
वह अपनी स्थिति को सोचकर दु:खी होकर बोला, ‘‘तुम नहीं जानती कि मेरा हाथ कितना तंग है। ठीक से खाने–पहनने लायक भी नहीं कमा पाता। तुम्हारी शादी के बाद तुम्हें एक बार भी नहीं बुला पाया।’’ आँखों के गिर्द आए पानी को छुपाने के लिए उसने खिड़की से बाहर देखते हुए गम्भीर स्वर में कहा, ‘‘सूद का लालच न करके मुझे कुछ बना देते तो मैं इनकी सेवा लायक न बन जाता!’’
पिताजी ने रुआँसे होकर बताया, ‘‘मेरे दो दाँत खराब हो गए थे, उन्हें निकलावाकर, नए दाँत लगवाए हैं, देखो!’’ उन्होंने दाँत बाहर निकाल दिए।
माँ बार–बार रोने लगी, ‘‘क्या करते हो? तुम्हारा सारा जबड़ा भी बाहर निकल आए तो किसी को क्या? दाँत न रहने पर आदमी ठीक से खा नहीं पाता?’’
दीदी भी रोने लगी, ‘‘दीपक, तुम्हें माँ–बाप पर जरा भी तरस नहीं आता?’’
दीपक का चेहरा बुझते–जलते लट्टू की तरह होने लगा। दु:ख और आक्रोश में वह काँपने लगा। अगले ही क्षण उसने नकली दाँतों का सैट मेज पर रख दिया और सिसकता हुआ गुसलखाने की ओर बढ़ गया….।
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