अब तक की पढ़ी हुई लघुकथाओं में से अपनी पसंद की किन्हीं दो लघुकथाओं का चयन अत्यंत दुष्कर है। मैं संदेशप्रद लघुकथाएँ पढ़ना ही पसंद करती हूँ। श्रीमती कान्ता राय की समसामयिक लघुकथा ‘साख बच गई’ इस मानक पर पूरी खड़ी उतरती है। एकालाप शैली में लिखी गई इस लघुकथा में लेखिका ने समाज की कई विसंगतियों पर एक साथ प्रकाश डाला है। मध्यमवर्गीय एकल परिवार की दुविधाग्रस्त ग्रस्त नायिका जहां एक ओर किटी मेंबर्स के सामने अपनी साख बचाने में तो सफल हो जाती है, वहीं खुद की नजरों में उसकी साख गिरकर चकनाचूर होती दिखाई देती है।
कथा के चरम में जब बच्चा सबके खा लेने पर खुशी जाहिर करता है,”मम्मी, देखो, सब उठ गए हैं खाकर, अब तो दोगी ना …?”
वह फीकी मुस्कान डालकर हॉल की तरफ बढ़ जाती है। वस्तुत: उसकी ‘फीकी मुस्कान’ में ही कथा का मर्म और संदेश छिपा हुआ है।
यह बदलते सामाजिक परिवेश की कथा है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह जहां रहता है, वहीं अपने लिए एक समाज गढ़ने की कोशिश करता है। कई बार इस औपचारिक कोशिश में उसे अपनी संवेदना से समझौता भी करना पड़ता है। बच्चे का माँ से भूख का रिश्ता होता है। वह माँ जो आधी रात में भी बच्चे की भूख का इंतजाम तत्परता से करती है, वहीं पर वह किटी पार्टी में लोगों के लिए खाना कम न पड़ जाए, इस डर से अपने बच्चे की भूख की अवहेलना करती है। यह कैसा समाज हम निर्मित कर रहे हैं, जहाँ नायिका को पारिवारिक मूल्यों को अनदेखा करने की मजबूरी इस कदर हावी हो जाती है। इस ज्वलंत विषय पर लेखनी चलाकर लेखिका ने शुभ संदेश देने का प्रयास किया है।
इस क्रम में श्री महेश शर्मा जी की लघुकथाएं भी बेहद मर्मस्पर्शी हैं।
वो चाहे ‘जायका‘ , ‘ विद्या’ हो या फिर ‘ज़रूरत’ ‘ सभी लघुकथाएँ समसामयिक एवं संदेशप्रद हैं; लेकिन ‘नेटवर्क’ कथा लेखक के वास्तविक धरातल से जुड़ाव को बड़ी सुगमता से दर्शाती हुई पाठकों के मर्म को छूती है।
इस सशक्त लघुकथा में लेखक ने बहुत ही प्रभावी ढ़ंग से नायक के माध्यम से सीधे- सीधे सोशल मीडिया के लाइक्स एवं कमेन्ट्स वाली खोखली दुनिया पर गहरी चोट की है।
डिजिटल प्लेटफॉर्म किस तरह एक नशा की तरह हमारे दिलो- दिमाग पर छाकर हमें वास्तविक दुनिया से दूर काल्पनिक दुनिया में जीने और अपनी खुशियों को तलाश करने पर मजबूर करता जा रहा है। इसका अत्यंत प्रभावी और सशक्त वर्णन लेखक ने किया है। नायक की सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक लाइक्स पाने की बेचैनी, उसे खुद की ही बीमारी की झूठी खबर फैलाने को मजबूर कर देती है एवं हर एक कमेंट पर खुश होकर संतुष्ट होना उसकी रुग्ण होती मानसिक दशा का ज्वलंत उदाहरण है। इसके साथ ही यहाँ लेखक ने बहुत कुशलता से अपनी लेखनी द्वारा, पाठकों के सामने इस तथ्य को भी रखा है कि आम व्यक्ति के जीवन से संवेदनाएँ अभी पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हुई हैं।
इस सच को साबित करते हुए शाम के समय उस अधेड़ व्यक्ति द्वारा नायक के दरवाजे खटखटाने से जब नायक की नींद खुलती है तो, वह वह हैरान रह जाता है; क्योंकि उसकी बीमारी वाली पोस्ट पढ़कर भी जहाँ सबने हाय– हैलो करके फुर्सत पा ली है। वहीं उसके शाम तक नहीं नजर आने पर सामने रहने वाले उस ‘अधेड़ व्यक्ति’ का हाल पूछने आना, उसे झकझोर कर रख देता है। असमंजस से भरा हुआ नायक चौंक उठता है। उसका यह ‘चौंकना’ पाठकों के दिल को छूकर यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि बनावटीपन के इस दौर में संवेदना के बचे रहने की अनगिणत संभावनाएँ अब भी जिन्दा हैं।
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1-साख बच गई/ कान्ता राय
“आप बार-बार रसोई में क्या कर रहीं हैं, आइये हमारे साथ अपनी प्लेट भी लगा लीजिए!” सुनते ही मुँह में कान्ता रायलगा गिलास हाथ से छूटते-छूटते बचा। तुरंत डायनिंग एरिया में लौटी।
“आप लोगों को देरी होता देख, भूख लगी तो खाना खा लिया था, इसलिए अभी बिलकुल भूख नहीं लग रही है, आप राजमा लीजिए, पूरी रख दूँ एक?”
“नहीं, अभी है प्लेट में, बाद में देखती हूँ।”
पॉश कॉलोनी में रहना, हिलना-मिलना, किटी ग्रुप ज्वाइन करना जरूरी था। काँपती अंगुलियों की पोरों में किराने वाले की उधारी का हिसाब गिनती करने में समा नहीं पा रही थी। बजट भाग रहा था। नई कॉलोनी, यहाँ वह अजायबघर की अलग-थलग प्राणी नहीं बनना चाहती थी इसलिए……!
“मम्मी।!” अंदर कमरे से फुसफुसाकर लड़के की आवाज़ बाहर आई तो वह चौंक उठी। किसी का ध्यान नहीं गया। डायनिंग टेबल पर सब खाने और आपसी बात-चीत में मशगूल थे।
वह धीरे-से सरककर कमरे में गई, “हल्ला मत करो, बाहर सब सुन लेंगे, क्यों बुलाया?”
“मुझे भी खाना चाहिए, भूख लगी है!”
“अभी नहीं, पहले मेहमान खा लें, इसके बाद खाना दूँगी।”
“इतने लोगों में मैं भी खा लूँ, तो क्या हो जाएगा?” लड़का रुआँसा हो रहा था।
“उफ्फ! समझता क्यों नहीं, मैंने लोगों की गिनती से खाना बनाया था। अब दो लोग एक्सट्रा आ गए हैं। अंदर खाना खत्म होने वाला है, तुम बाहर मत निकलना और चुप रहना, बस आज मेरी इज्जत बच जाए।”
“मम्मी, देखो, सब उठ गए हैं खाकर, अब तो दोगी ना…?” लड़का खुशी जाहिर करते हुए सिसका।
वह झट से बाहर निकली।
“अरे, आप सबने तो ठीक से खाया ही नहीं, ऐसे ही उठ गए!”
“मिसेज वर्मा, आपके हाथों में तो जादू है, हम सबने दिल से खाना खाया है।”
“कहाँ कर पाई कुछ भी, बहुत कम वक्त में तैयारी कर पाई हूँ।”
“इस साल की किटी पार्टी में आपके यहाँ का पहला लंच हमेशा याद रहेगा।”
वह फीकी मुस्कान लिये कमरे में बेटे की ओर देखी, बेटे की नजर डायनिंग टेबल पर डोंगे में बचे खाने पर अब तक टिकी हुई थी। उसकी ओर आँखें तरेर, वह सुपारीदान लेकर हॉल की ओर बढ़ गई।
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2-नेटवर्क / महेश शर्मा
कई दिनों से सोशल नेटवर्क पर न ज़्यादा लाइक्स मिल रहे थे, न कमेंट्स, हर पोस्ट औंधे मुँह गिर रही थी। सो, आज इस छुट्टी के दिन ब्रहमास्त्र चलाया स्टेटस अपडेट किया, “डाउन विद हाई फीवर”
पहले नाश्ता, फिर किराए के इस वन रूम सेट की सफाई, कुछ कपड़ों की धुलाई उसके बाद लंच तैयार किया और फिर जमकर स्नान।
इस बीच लाइक्स और कमेंट्स की रिसीविंग टोन बार-बार बजती रही। तीर निशाने पर लग चुका था।
लंच के बाद, अपना फोन लेकर वह इत्मीनान से बिस्तर में लेट गया। …गेट वेल सून”, …” ओ बेबी ख्याल रखो अपना”, ……” अबे, क्या हो गया कमीने” , वगैरह-वगैरह!
एक-एक कमेंट्स को सौ-सौ बार पढ़ते, तमाम लाइक्स को बार-बार गिनते और इस बीच टीवी देखते-देखते कब झपकी आ गई, पता ही नहीं चला।
चौंककर उठा तो देखा शाम गहरा गई है और कोई कमरे का दरवाजा खटखटा रहा है।
“जी कहिए?” उसने उलझन भरे स्वर में पूछा।
“न-नहीं कुछ बात नहीं,” दरवाजे पर खड़े, उस अधेड़ उम्र के अजनबी ने संकोच भरे स्वर में कहा, “वो तुम सुबह से अपने कमरे से बाहर नहीं निकले तो सोचा कि पूछ लूँ, मैं सामने वाले वन रूम सेट में ही तो रहता हूँ।”
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सीमा वर्मा, डी- 603, ग्रैंड अजनारा हेरिटेज -सेक्टर-74 नोएडा-201301