कथा- जगत् की लघुकथा विधा अपनी आकारगत विशेषता और मारक शक्ति के कारण पाठकों के ज्यादा नजदीक है, जिसमें जीवन की विषमताएँ, व्यंग्य का कटीला पैनापन और जीवन की विसंगतियां समाहित होती हैं। कम शब्दों में अधिक कहने की इसकी शक्ति की इस विधा की अनन्य ताकत है। जिसके कारण इस विधा के प्रति मेरी रुचि उत्पन्न हुई। तब से अनेकों लघुकथाएँ पढ़ीं। इस श्रेणी में सुकेश साहनी की लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ और डॉक्टर उपमा शर्मा की ‘बदलते दृष्टिकोण’ मुझे पसंद हैं।
साहित्य का सृजक वर्ग सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील, चिंतनशील और विशेष दृष्टि संपन्न होता है। सुकेश साहनी का रचनाओं की आयरनी यही है कि विसंगति, विडम्बना, तनाव और सूक्ष्मता उन्हें वहाँ में भी दिख जाती है जहाँ सामान्य मनुष्य की नज़र नहीं पहुँचती जिससे वो जीवन को अधिक साफ और व्यापक देखने की सामर्थ्य रखते हैं। मुंशी प्रेमचंद के अनुसार ‘साहित्य जीवन की आलोचना है।’ समर्थ रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से समस्या या प्रश्न के रूप में जीवन की व्याख्या करता है। हमारे भारतीय समाज में दामाद का माथा पूजने की परंपरा है अर्थात उसे बहुत ऊँचा दर्जा दिया जाता है। दामाद को बेटा बनाने के स्थान पर मेहमान बना उसकी आवभगत में कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। सुकेश साहनी ने अपनी लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ में इसी विसंगति को बड़ी ख़ूबसूरती से उठाया है। ‘दामाद देवो भव’ की भावनाओं से ओत-प्रोत परिवार अर्थाभाव में भी दामाद का अच्छे से अच्छा स्वागत करते हैं। पूरा परिवार दामाद जी की सेवा में इसी प्रयास में लगा रहता है कि दामाद जी को कोई कष्ट न हो भले ही पूरा परिवार परेशानी में रहे। बेटियाँ भी इस परम्परा से परेशान रहती हैं। माता-पिता का कष्ट और ससुराली परिजनों की टेढ़ी भृकुटि दोनों के बीच सामजस्य बिठाते ही उनकी जिंदगी बीत जाती है और पीढ़ी दर पीढ़ी यह परम्परा चलती रहती है।
एक समर्थ रचनाकार प्रतीकों के माध्यम से अमूर्त अवधारणाओं को व्यक्त करता है जिससे रचना की अर्थवत्ता में विस्तार के साथ युगीन मनोवैज्ञानिक स्थितियों की सहज अभिव्यक्ति भी होती है। प्रतीक वास्तविक और काल्पनिक के बीच एक पुल का काम करते हैं जिससे पाठकों को रचना से जुड़ने और अधिक व्यक्तिगत स्तर पर व्याख्या करने की अनुमति मिलती है। प्रस्तुत लघुकथा में अर्थ(धन) के लिए गोश्त का प्रतीक हमारे जीवन में सादृश्यता ही नहीं दिखलाता बल्कि उस दृश्य के तरल कांतिमय दीप्त सौंदर्य को भी मूर्तिमान कर देता है।
यथा-
” सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिलकुल ताजा टुकड़े तैर रहे थे। “
” अपनी तरफ़ से उन्होंने काफ़ी होशियारी बरती थी। उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था। “
कहा जाता है एक सजग रचनाकार समस्या के साथ रचना में समाधान भी देता है। लघुकथा में जब दामाद अपने ससुर को कहता है-
“देखिए, मैं बिलकुल नाराज नहीं हूँ।” उसने मुस्कुराकर कहा , ”मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना मांस परोसना बंद कीजिए।”
यह सुन सबको घर में अनायास ही अनचाही उपज आई घुटन से छुटकारा मिल जाता है।
“वे सब असमंजस की स्थिति में उसके सामने खड़े थे। तभी उसकी नज़र अपने साले पर पड़ी। वह बहुत मीठी नज़रों से सीधे उसकी ओर देख रहा था। सास -ससुर इस कदर अचंभित थे जैसे एकाएक उन्हें किसी शेर ने अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया हो।”
रचनात्मकता यद्यपि विभिन्न रूपों में दिखाई देती है; परन्तु इसका सबसे अधिक मूर्त रूप साहित्य में प्रकट होता है। रचनात्मकता मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व का एक अनिवार्य हिस्सा है। यह मनुष्य को रूढ़ियों और पूर्व ग्रह से मुक्त करती है। यह मनुष्य के दृष्टिकोण में व्यापकता लाती है और उसके अंतरजगत को समृद्ध करती है।
लघुकथा ‘बदलते दृष्टिकोण’ का निहितार्थ परंपरा के नाम पर उन रूढ़ियों पर सवाल खड़े करता है जिससे वेवजह ही जीवन शैली में तनाव उत्पन्न होता है। घर की बहू को सुबह- सवेरे उठना, सब काम समय पर करना, सबकी सेवा-सुश्रूषा करना, यह पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। और पीढ़ी- दर- पीढ़ी बिना परिवर्तन किसी घटना का होना परंपरा या रिवाज़ में परिवर्तित हो जाता है।
जब कोई लड़की वैवाहिक जीवन में प्रवेश करती है उसे सामंजस्य बैठाने में समय और परिश्रम दोनों ही लगता है। यह मान कर चला जाता है विवाह संस्कार में बँधते ही लड़की एकदम समझदार हो जाती है। कल की अल्हड़, जागते ही बिस्तर पर चाय पीने वाली, माँ के गले लग लाड़ लड़ाने वाली, भाभी से मनुहार कराने वाली लड़की यकायक विवाह बंधन में बँधते ही इतनी बड़ी हो जाती है कि घर के प्रत्येक सदस्य की अपेक्षाओं पर ख़रा उतरना उसका कर्तव्य बन जाता है । और इस कर्तव्य में थोड़ा भी इधर- उधर होने पर पारिवारिक सदस्यों ख़ासकर सासू माँ की नाराज़गी सहन करनी होती है। लघुकथा, ‘बदलते दृष्टिकोण’ में सासू माँ अपनी पुत्रवधू द्वारा चाय लाने में हुई देरी और उस पर भी कम चीनी की चाय लाने पर नाराज़ होती हैं। ननद के पूछने पर भाभी रितु का कहना कि आपके भैया ने ही माँ को शुगर होने के कारण कम चीनी की चाय देने को कहा है। इस पर सासू माँ कम तेल और नमक का खाना देने की शिकायत करती हैं। बेटी मीनू के समझाने पर कि आप हृदय रोगी हो, आपके स्वास्थ्य को ध्यान में रख ही भाभी परहेज का खाना देती हैं। माँ की भावनाएँ आहत होती हैं कि कल तक माँ की हाँ में हाँ मिलाने वाली बेटी भी अपनी भाभी का पक्ष ले रही है।
एक साधारण से कथ्य को कहन से कैसे प्रभावशाली बनाया जाता है, डॉक्टर उपमा शर्मा की इस लघुकथा में दिखता है। लघुकथा की यह पंक्ति- ‘हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा ज़ोर से चुभ गया मीनू के हाथ में’ कथा को नई दृष्टि प्रदान करती है । ननद मीनू ससुराल में सामंजस्य बैठाने में जब स्वयं परिस्थितियों से गुजरती है, तब उसे समझ आता है कि भाभी भी छोटे बच्चे के साथ घर- परिवार के कार्यों में सामंजस्य बैठाने की पूरी कोशिश करती हैं।
जाके पैर न फटे बिबाई वो क्या जाने पीर पराई इस मुहावरे को चरितार्थ करते हुए लघुकथा की अंतिम पंक्ति से लघुकथा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचती है जब ननद मीनू अपनी माँ को नजरें झुकाकर जबाब देती है, “तब मैं किसी की भाभी नहीं थी माँ।”
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1.गोश्त की गंध (सुकेश साहनी)
दरवाजा उसके बारह वर्षीय साले ने खोला और सहसा उसे अपने सामने देखकर वह ऐसे सिकुड़ गया जैसे उसके शरीर से एक मात्र नेकर भी खींच लिया गया हो। दरवाजे की ओट लेकर उसने अपने जीजा के भीतर आने के लिए रास्ता छोड़ दिया। वह अपने साले के इस उम्र में भी पिचके गालों और अस्थिपंजर से शरीर को हैरानी से देखता रह गया।
भीतर जाते हुए उसकी नजर बदरंग दरवाजों और जगह-जगह से झड़ते प्लास्टर पर पड़ी और वह सोच में पड़ गया। अगले कमरे में पुराने जर्जर सोफे पर बैठे हुए उसे विचित्र अनुभूति हुई। उसे लगा बगल के कमरे के बीचों -बीच उसके सास ससुर और पत्नी उसके अचानक आने से आतंकित होकर काँपते हुए कुछ फुसफुसा रहे हैं।
रसोई से स्टोव के जलने की आवाज आ रही थी। एकाएक ताजे गोश्त और खून की मिलीजुली गंध उसके नथुनों में भर गई। वह उसे अपने मन का वहम समझता रहा पर जब सास ने खाना परोसा तो वह सन्न रह गया। सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिलकुल ताजा टुकड़े तैर रहे थे। बस, उसी क्षण उसकी समझ में सब कुछ आ गया। ससुर महोदय पूरी आस्तीन की कमीज पहनकर बैठे हुए थे, ताकि वह उनके हाथ से उतारे गए गोश्त रहित भाग को न देख सके। अपनी तरफ से उन्होंने शुरू से ही काफी होशियारी बरती थी। उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था, पर ऐसा करने से गालों में पड़ गए गड्ढों को नहीं छिपा सके थे। सास भी बड़ी चालाकी से एक फटा सस्ता दुपट्टा ओढ़े बैठा थी ताकि कहाँ-कहाँ से गोश्त उतारा गया है और समझ न सके। साला दिवार के सहारे सिर झुकाए उदास खड़ा था और अपनी ऊँची-ऊँची नेकर से झाँकती गोश्त रहित जाँघों को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था। उसकी पत्नी सब्जी की प्लेट में चम्मच चलाते हुए कुछ सोच रही थी।
“राकेश जी, लीजिए… लीजिए न।” अपने ससुर महोदय की आवाज उसके कानों में पड़ी।
“मैं आदमी का गोश्त नहीं खाता!” प्लेट को परे धकेलते हुए उसने कहा।
अपनी चोरी पकड़े जाने से उनके चेहरे सफेद पड़ गए थे।
“क्या हुआ आपको?… सब्जी तो शाही पनीर की है!”… पत्नी से विस्फारित नजरों से उसकी ओर देखते हुए कहा।
“बेटा नाराज मत होओ… हम तुम्हारी खातिर में ज़्यादा कुछ कर नहीं…”-सास ने कहना चाहा।
“देखिए मैं बिलकुल नाराज नहीं हूँ।” उसने मुस्कुराकर कहा, “मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना माँस परोसना बंद कीजिए। जो खुद खाते हैं वही खिलाइए। मैं खुशी-खुशी खा लूँगा।”
वे सब असमंजस की स्थिति में उसके सामने खड़े थे। तभी उसकी नजर अपने साले पर पड़ी। वह बहुत मीठी नजरों से सीधे उसकी ओर देख रहा था। सास-ससुर इस कदर अचंभित थे जैसे एकाएक किसी शेर ने उन्हें अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया हो। पत्नी की आँखों से आँसू बह रहे थे। यह सब देखकर उसने सोचा… काश ये गोश्त की गंध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गई होती!
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2. बदलते दृष्टिकोण (डॉ. उपमा शर्मा)
सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ती मीनू माँ की आवाज़ पर रुक गई। वह ग़ुस्से में ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थीं। सदा की तरह निशाना भाभी थीं। जल्दी से गुलाब तोड़ अंदर भागी मीनू।
“क्या हुआ माँ? इतना ग़ुस्सा क्यों हो रही हो ?”
“तो और क्या करूँ? बता! इतने दिनों में घर के तौर-तरीक़े नहीं सीख पाई ये। कोई काम ढंग से नहीं होता इससे। एक तो महारानी जी चाय अब लाई हैं, उसमें भी चीनी कम।” माँ ने ग़ुस्से में ही जवाब दिया।
“माँ मेरी चाय में तो चीनी सही थी, फिर तुम्हें क्यों कम लगी?” मीनू ने प्रश्नवाचक नज़रों से भाभी को देखा।
“वो दीदी! माँ जी की चाय में ज़्यादा चीनी डालने पर आपके भाई नाराज़ होते हैं। माँ को शुगर है न।” भाभी ने सहमे स्वर में ननद को जवाब दिया।
“बस! सुन लो इसका नया झूठ। अब मुझे मेरे बेटे के ख़िलाफ़ भड़का रही है। वो मना करता है इसे!” माँ जी का ग़ुस्सा और बढ़ गया।
“माँ! भाभी ठीक ही तो कह रही हैं। आप डायबिटिक हो। ज़्यादा मीठी चाय पीओगी तो आपको ही दिक़्क़त होगी।” “अच्छा जी, तो अब ये भी बता दे कि मेरे लिए सब्ज़ी में नमक, मसाले और तेल क्यों नाम का डालती है? उसमें किसने मना किया है इसे ?” माँ ने व्यंग्य के स्वर में पूछा बेटी से।
“माँ! आप भी जानती हो! हृदय-रोगी हो आप और ये सब नुक़सान देता है आपको।”
“अच्छा देर तक भी इसीलिए सोती होगी कि जल्दी उठने से मेरी बीमारी बढ़ जाएगी।”
“माँ! क्या देर से उठती हैं भाभी? आजकल कौन उठता है सुबह पाँच बजे! फिर रितु कितनी छोटी है। रातभर जगाती होगी भाभी को।” मीनू ने माँ को समझाना चाहा।
“और क्या-क्या दु:ख हैं इसे ? यह भी बता..और तू कबसे इसकी इतनी तरफ़दारी करने लगी! कल तक तो मेरी हाँ में हाँ मिलाती थी!!” माँ ने आश्चर्य से बेटी को देखते हुए कहा।
हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा ज़ोर से चुभ गया मीनू के हाथ में। नज़रें झुकाकर जवाब दिया, “तब मैं किसी की भाभी नहीं थी माँ।”
-0- मनीष श्रीवास्तव, फ्लैट न. टॉप-3, नर्मदा ब्लॉक, अल्टीमेट कैंपस, शिर्डीपुरम,कोलार रोड, भोपाल-462042 म.प्र , मोबाइल नंबर-8823809990
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