
लघुकथा लेखन गद्य साहित्य की सबसे रोचक विधा है। यह विधा अपने एकाकी स्वरूप में किसी भी एक विषय, एक घटना या एक क्षण पर आधारित होती है, जो अपने सीमित दायरे में स्वतः पूर्ण एवं प्रभावशाली होती है। लघुकथा में यथार्थ घटनाओं की बंदिश नहीं होती। उसमें यथार्थ के अतिरिक्त कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के द्वारा कथ्य की अभिव्यक्ति की जाती है। काल्पनिक पात्र और काल्पनिक घटनाओं पर आधारित रचना भी संभव है। आज लघुकथा का उद्देश्य समाज को शिक्षात्मक संदेश या संस्कार देने तक सीमित नहीं; अपितु आसपास की विसंगतियों का यथार्थ चित्रण करना भी है। ऐसी लघुकथाएँ पाठक के मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं।
मैंने बहुत सारे लघुकथाकारों की लघुकथाएँ पढ़ी हैं, जिन्होंने मेरे मन पर अपनी एक ख़ास छाप छोड़ी है। उनमें एक हैं हिन्दी की लघुकथाकार प्रेरणा गुप्ता जी, जिनकी कथा-शैली ने मुझे बहुत प्रभावित किया है; दूसरे हैंर जगदीश राय कुलरियाँ, जो पंजाबी के सशक्त हस्ताक्षर हैं।
प्रेरणा गुप्ता जी की रचनाएँ मुझे इसलिए पसन्द हैं, क्योंकि कथ्य, दृष्टिकोण, शिल्प एवं शैली के आधार पर वह विशिष्ट महत्त्व रखती हैं। उनका कथ्य को बिम्बों से कहना इसे और रुचिकर बनाता आज मैं बात करूँगी लघुकथा ‘भय की कगार पर’ की।
लघुकथा का शीर्षक उत्सुकता जगाता है कि लघुकथा के माध्यम से किस भय की ओर लेखिका इशारा कर रहीं हैं। कथा की शुरुआत में उनका प्रकृति प्रेम दर्शाया गया है। इधर से उधर बलखाती गिलहरियाँ, आपस में बतियाते कबूतर और ऊपर आसमान में चमकता सूरज अपनी बुलंदियों पर है। इतना मनोरम दृश्य है कि वह उसे कैमरे में क़ैद कर फेसबुक पर डालने के लिए सोच रही है जैसा कि आजकल सोशल मीडिया पर इसका बड़ी तेज़ी से चलन चल पड़ा है। लोग एयर कंडीशंड रूम में बंद सोशल मीडिया पर पर्यावरण के प्रति कोरी बातें करते हैं, जबकि उसके प्रति कोई दायित्व नहीं निभाते ।
लघुकथा में कबूतर को प्रतीक के रूप में दूसरा पात्र तैयार करके लेखिका उससे बातें करती है। उसकी आँखें मिचमिचाने से लेकर उसके पंखों के फड़फड़ाने में अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनती है। दृश्य आँखों के सामने उभर आता है। स्पष्ट रूप से लेखिका को पर्यावरण की चिंता है जैसा कि हम इंसानों ने पेड़,पौधे और हरियाली का ख़ात्मा कर पंक्तिबद्ध गगनचुंबी इमारतें खड़ी कर दी हैं। इंटरनेट के टॉवर्स, एयर कंडीशंड और भी अन्य कारणों का पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है। दाना- पानी डालने पर भी चिड़िया और कौओं का आना कम हो गया है। अब दिखाई पड़ते हैं, तो ज़्यादातर कबूतर। इंसान जिस डाल पर बैठा है, उसी को काटने में लगा पड़ा है। कथा की अंतिम पंक्ति में यह भय उभरकर आया है कि विलुप्त प्राणियों की लिस्ट में डायनासोर की तरह कहीं हम इंसान भी तो नहीं…? जो कि कथा के शीर्षक -‘भय की कगार पर’ को सार्थक कर रहा है।
इस लघुकथा के माध्यम से समाज को जागरूक करने का यह एक सफल प्रयास है। अंत में मैं यही कहना चाहूँगी कि प्रकृति से प्रेम करने वाले लोग अभी भी धरती पर हैं।
-0-
जगदीश राय कुलरियॉं अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं को बहुत ही गहन दृष्टि से देखते हैं। उनकी लघुकथाएँ सरल और सहज भाषा में लिखी गईं हैं। कथानक प्रवाहमय है और भावपूर्ण है। अपने शीर्षक के अनुरूप ‘हमदर्दी’ एक सटीक एवं सकारात्मक लघुकथा है। यह लघुकथा मुझे इसलिए भी पसन्द है; क्योंकि इस में बिना किसी स्वार्थ के दूसरों की मदद करना यहाँ एक ओर व्यक्ति के व्यक्तित्व की ऊँचाई को दर्शाता है, वहीं रिश्तों में प्यार और सम्मान को भी दिखाता है। लेखक की सोच आदर्शवादी और दृष्टिकोण आशावादी है। हमारे समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं जो बीमार का हाल पूछने जाते हैं, मगर घर वालों पर काम का बोझ बढ़ाकर चलते बनते हैं। बिना यह सोचे कि इस अवस्था में वह निर्वाह कैसे कर रहे हैं। कथा के अंतर्गत जब पात्र अपनी पत्नी के साथ उसकी बीमार सहेली का हाल पूछने जाता है, तो पत्नी का बर्तन उठाकर रसोईघर में जाना और वहाँ पहले से जूठे पड़े बर्तनों को साफ़ कर देना उसके कोमल हृदय को दर्शाता है।
आजकल के इतने कठोर समय में इंसान इतना स्वार्थी हो चला है कि अगर कहीं प्रेम, क्षमा, दया या मोहब्बत का भाव दिख जाता है, तो दिल को तसल्ली पहुँचती है। लघुकथा के माध्यम से यह संदेश उभरकर आ रहा है कि धरती पर मानवता अभी भी ज़िंदा है।
-0-
1-भय की कगार पर/ प्रेरणा गुप्ता
सीढ़ियाँ चढ़कर जैसे ही मैं छत पर पहुँची, इधर से उधर बलखाती गिलहरियाँ, आपस में बतियाते कबूतर ! ऊपर आसमान में चमकता सूरज अपनी बुलंदियों पर था। अहा! कितना मनोरम दृश्य था!अचानक मन में ख्याल आया, क्यों न कैद कर लूँ इन सबको अपने कैमरे में…!
फोकस बनाया ही था कि एक कबूतर महराज मुँडेर पर बैठे कनखियों से मेरी ओर देख रहे थे। मैं ठिठक गई, मैंने उससे पूछा, ‘‘ऐ कबूतर! तनिक बताओ तो, तुम मुझे इस तरह से क्यों देख रहे हो?”
उसने गर्दन मटकाते हुए आँखें मिचमिचाईं।
मैं फिर बोली, “देखो, मैं धूप सेकने आई हूँ। क्या तुम भी अपने पंखों को धूप दिखा रहे हो? अच्छा, छोड़ो तुम न समझोगे मेरी ये सारी बातें।”
उसने भी जैसे मुझे इग्नोर किया।
मैं फिर बोल उठी, “वैसे दोपहर भर तुम्हारी गुटरगूँ मुझे बहुत डिस्टर्ब करती है और सुना है कि तुम वजन में बहुत भारी होते हो?”
इस बार उसने अपने पंख फड़फड़ाए। मुझे लगा कि जैसे शायद वह कह रहा था कि भारी तो तुम इंसान हो इस धरती पर, और हम परिंदों पर। न तो तुमने पेड़-पौधे छोड़े। ऊपर से चारों तरफ प्रदूषण फैला रखा है। त्योहारों पर तो माइक लगाकर, न जाने क्या-क्या फ़ुल वॉल्यूम में बजाते रहते हो। अब तुम्हीं बताओ, कौन किसको डिस्टर्ब करता है? और कौन किस पर भारी है?
मैं हैरान थी, अरे! ये तो सब कुछ समझता है!
उसने फिर अपनी गर्दन मटकाई, जैसे वह कह रहा था कि तुम तो मन के पंख लगा कर उड़ा करती हो, लो देखो मेरे पंख! ये देखो, मैं उड़कर दिखाऊँ?
“अरे रे रे, तनिक ठहरो तो, एक तस्वीर तो उतार लूँ तुम्हारी! फेसबुक पर डालनी है ना, अपने दोस्तों को दिखाने के लिए।”
इस बार उसकी फड़फड़ाहट से मानो फिर आवाज आई- “लो, कर लो कैद हमें तस्वीरों में, तुम्हारी भावी पीढ़ी के काम आएँगी, ये बताने को कि कोई कबूतर नाम का भी प्राणी होता था इस संसार में, वह भी डायनासोर की तरह विलुप्त हो गया।” और वह पंख फड़फड़ाता आकाश में उड़ गया।
तस्वीर तो मैंने ले ही ली थी, मगर आँखों के सामने अँधेरा-सा छा गया। दिल में ख्याल आया कि विलुप्त प्राणियों की लिस्ट में कहीं हम इंसान भी तो नहीं ….?
-0-
2-हमदर्दी/ जगदीश राय कुलरियॉं
पत्नी काफ़ी दिनों से पीछे पड़ी हुई थी कि उसने अपनी सहेली का हाल-चाल पूछने जाना है। कोई ऑपरेशन हुआ है उसका।आज दफ्तर से आधी छुट्टी लेकर उसे सहेली के पास ले जाने में आखिर सफल हो ही गया हूँ। दफ़्तर से छुट्टी कौन-सा मिलती है। एक बार ऑफिस चले जाओ फिर तो निकला ही नहीं जाता। पत्नी की सहेली के घर बैठे चाय पीते समय ये सभी बातें दिमाग में घूमती हैं।
मेरी पत्नी अपनी सहेली का हालचाल पूछते हुए उसको हिदायतें भी दे रही है, ‘‘देख बहन, अपना ख्याल रखना, महीना भर रेस्ट कर लेना और भारी काम तो बिल्कुल ना करना। वैसे भी सीलन वाले मौसम में टाँके ठीक होने में समय लगता है। ध्यान रखना, नहीं तो फिर जिंदगी भर परेशान होना पड़ता है, घर के काम तो होते ही रहेंगे।’’
मैं सोचता हूँ, जब कोई किसी का हाल जानने जाता है, तो हर आने जाने वाला बहुत सी नसीहतें और सावधानियाँ बता कर जाता है। यह सब सुनकर तो मरीज़ बेचारा चक्करों में ही पड़ जाता है कि किसकी बात मानें, किसकी न माने।
चाय के खाली हुए कप, प्लेट मेरी पत्नी खुद ही उठाकर सहेली के मना करने पर भी रसोई में रखने के लिए चली जाती है। मैं फिर सोचता हूँ कि बर्तन रसोई में रखकर आने के बाद आज्ञा लेकर चलते हैं; पर वह काफी समय तक वापिस न आई। मैं यूँ ही सेहत के बारे में हल्की फुलकी बातें मारकर टाइम पास करता हूँ। सच पूछो, तो मुझ से ऐसे झूठमूठ के शब्द नहीं बोले जाते।
पत्नी की वापसी पर विदा लेकर हम घर को चलते हैं। मैं रास्ते में पूछता हूँ , ‘भागवान, बर्तन रखने में इतना टाइम, मैंने तुम्हें कहा था कि जल्दी वापिस चलना है, खुद ही उठा कर ले जाते कप, जो चाय बनाकर लाए थे।”
‘‘हम उनका दुःख बाँटने गए थे, बढ़ाने नहीं। यदि कप उठाकर रख आई, तो क्या हो गया? बच्चों के काम तो ऐसे ही होते हैं।” उसने जवाब दिया।
‘‘बर्तन रखने में इतना टाइम ?’’ मैं ज़ोर से बोलता हूँ।
‘‘दरअसल जब मैं रसोई में गई, तो जूठे बर्तनों का ढेर लगा हुआ था।आज कल हर कोई मिलने जुलने वाला हाल जानने आ जाता है। मैंने सोचा चलो बर्तनों में ही हाथ फेर देती हूँ, इसी में थोड़ा टाइम लग गया।” -उसने झिझकते हुए मुझे पूरी बात बता ईती है।
यह सुनते ही मेरी नज़रों में उसके लिए सम्मान और बढ़ गया था।
-0-
सीमा वर्मा , हाऊस नंबर बी VI 369, गुरू नानक देव गली-1, पुरानी माधोपुरी, लुधियाना (पंजाब)-पिन कोड 141008