क्या लघुकथाएँ साहित्य का भ्रम हैं? अगर हाँ तो पाठकों और लेखकों को इस भ्रम में उलझना चाहिए!

लघुकथाएँ वर्तमान समय की माँग हैं और जरूरत भी। हालाँकि, साहित्य सृजन के हर युग में इस विधा की सार्थकता रही है। लघुकथाएँ सीमित शब्दों में असीमित का आख्यान हैं जिन्हें पढ़कर एक लंबी कहानी जितना ही मनोवैज्ञानिक-दार्शनिक उद्वेलन हो सकता है और साहित्य सरोकारों से संपन्न हुआ जा सकता है। ऐसे समय में जबकि लघुकथाओं की प्रासंगिकता पर ही संकट और सवाल हों, इस विधा में लिखा और पढ़ा जाना एक सुख सदृश है। कम से कम शब्दों और समय में किसी कहानी, कविता को पढ़े जाने जितना प्राप्त सुख।
मेरी समझ से जैसे कोई अच्छी, महान कविता का कम शब्दों, पंक्तियों में ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव और प्रकाश होता है वैसे ही कोई अच्छी लघुकथा प्रभाव छोड़ती है।
अपने पसंद की कथाओं में किन्हीं दो का ही चयन कितनी दुरुह क्रिया है इस प्रक्रिया से गुजरने पर ज्ञात हुआ।
न जाने कितने सुचिंतित भावों, संवेदनाओं, सरोकारों से सिक्त अनेक आरंभिक और समकालीन रचनाकारों की कथाओं में से दो का चयन संभव ही नहीं है; क्योंकि सभी रचनाओं का मूल्य और उसका प्रभाव अलग है; लेकिन, इस प्रतिष्ठित मंच (laghukatha.com) के इस स्तम्भ के मानक अनुसार चयन करते हुए कई दिनों तक कई कथाएँ दिमाग में गड्ड- मड्ड करती रहीं। कई लघुकथाएँ जाने के बाद कुछ समय तक मानसिक तरंगों को झंकृत करती रहीं। फिलहाल दो लघुकथाएँ हैं –
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की ‘पाठशाला’ और सुदर्शन की ‘भाई -बहन ‘।
पहली लघुकथा है -‘बहन- भाई’
इसे लिखा है प्रेमचंद की परंपरा और हिंदी – उर्दू के लेखक सुदर्शन (1896- 1967) ने। लघुकथा में एक छोटी अबोध लड़की है जो बहन है। बहन ने अपने से उम्र में अधिक और वजन में भी भारी लड़के को उठाया हुआ है। लड़का जो भाई है। बहन के लिए भाई को इस तरह उठाकर लंबा रास्ता पार करवाना एक सामान्य कर्तव्य-बोध की तरह उभरता है। उसके लिए यह इतनी सहज और सामान्य बात है कि जब लेखक लड़के के भारी होने के संदर्भ में उससे पूछते हैं – “क्या यह लड़का भारी है?” तो लड़की को इस तरह के प्रश्न पर हैरानी होती है। भाई को भारी कहा जाना उसे स्वीकार नहीं! लड़की भाई की तरफ मुस्कुरा कर देखती है और कहती है – “नहीं, यह भारी नहीं है। यह तो भाई है।” और ठीक इसी पल में लड़की लड़के से बड़ी हो जाती है। बहनें इसी तरह पहले भाइयों को ढोती हैं और फिर घर- गृहस्थी को, फिर जिंदगी को। इसमें सबसे आश्चर्यजनक यह है कि इस तरह भार ढोने की आदत बचपन से ही ऐसी बन जाती है कि भार वजनी लगता ही नहीं। भाई जितना प्यारा लगने लगता है जिसे ढोते हुए पसीना मोती की तरह चमकता है। सहज आत्मीयता के साथ कर्तव्य बोध से जटिल कार्य भी प्रिय और हल्के लगने लगते हैं।
लघुकथा के कथ्य और शिल्प सहज हैं जो पाठक को पात्रों के साथ जोड़ देते हैं। अनायास ही बहन के प्रति एक सहानुभूति और प्रेम की भावना उत्पन्न होती है ।
दूसरी लघुकथा ‘ पाठशाला’ प्रख्यात साहित्यकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी ( 1883- 1922) द्वारा रचित है और वर्तमान शिक्षा प्रणाली में विलीन होती जाती बाल्यावस्था का चित्रण है।
यह तमाम बच्चों की प्रतिनिधि लघुकथा है। बच्चे जो स्कूल जा रहे हैं, बच्चे जो रट- रटकर पढ़ रहे हैं और बच्चे जिनपर भविष्य की उम्मीदें हैं। कथा में इन्हीं तमाम बच्चों में से ही एक बच्चा है जिसकी उम्र आठ वर्ष है और वह किसी पाठशाला के प्रधानाध्यापक का पुत्र है। जिसके पिता ही प्रधानाध्यापक हों उस बच्चे पर तो अपनी दक्षता प्रमाणित करते रहने का अतिरिक्त बोझ होना निश्चित ही है। बच्चे की भरी सभा में नुमाइश हो रही है। निश्चय ही इस नुमाइश से बच्चा परेशान है। उसका मुँह पीला पड़ गया है, आँखें सफेद हो गई हैं और उसकी दृष्टि भूमि से उठती नहीं।
ऐसी मनोदशा में वह जटिल प्रश्नों के उत्तर देता जा रहा था। उसने यह भी बताया कि बड़ा होकर वह लोकसेवा करेगा। बच्चे की ऐसी प्रतिभा देख सभी हतप्रभ थे और पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। लेकिन लेखक की साँस घुट रही थी; क्योंकि लेखक देख पा रहे थे कि किस तरह किसी बालक की बालोचित्त प्रवृत्तियों का गला घोंटा जा रहा था। इसी बीच किसी ने बालक से कोई इनाम माँगने को कहा। बच्चा क्या माँगे कुछ कृत्रिम (माहौल अनुरूप) या बाल स्वाभाविक! द्वंद्व की झलक उसकी आँखों में दिखने लगी। लेकिन कृत्रिमता पर सहज बचपन की स्वाभाविकता की विजय हुई और बच्चे ने धीरे से कहा -“लड्डू!” यह बच्चे के बचपना बच पाने का एक मीठा आस्वादन और आशा थी। लड्डू माँगे जाने में जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था।
लगभग सौ वर्ष पूर्व लिखी गई यह लघुकथा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। आज भी बच्चे अभिभावकों और समाज के बीच मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह ही हैं। लघुकथा संदेश प्रेषित करती है कि किस तरह छोटी सी अवस्था में ही बच्चे रटंत विद्या द्वारा भारी- भरकम बातें याद तो कर लेते हैं लेकिन इस तरह उन्हें हासिल कुछ नहीं होता है और इन सबके बीच उनका बचपना अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले दबता चला जाता है। लेकिन लेखक यह भी दर्शाना नहीं भूलते कि उम्मीद का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। उम्मीद है कि बच्चे पढ़ें भी और स्वाभाविक रूप से बढ़ें भी।
बहन- भाई/ -सुदर्शन
मैंने काँगड़े की घाटी में एक लड़की को देखा, जो चार साल की थी और दुबली- पतली थी। और एक लड़के को देखा जो पाँच साल का था, और मोटा ताजा था। यह लड़की उस लड़के को उठाए हुए थी और चल रही थी।
लड़की के पाँव धीरे- धीरे उठते थे और उसका रास्ता लंबा था, और उसके माथे पर पसीने के मोती चमकते थे। वह हाँफ रही थी।
मैंने लड़की से पूछा -“क्या यह लड़का भारी है?”
लड़की ने पहले हैरान होकर मेरी तरफ देखा, फिर मुस्कराकर लड़के की तरफ देखा, फिर जवाब दिया- “नहीं, यह भारी नहीं है। यह तो भाई है।”
(जुलाई,1947)
पाठशाला/ चंद्रधर शर्मा गुलेरी
एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुंह पीला था, आँखें सफ़ेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतलता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राण-रक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने, न मानने का शास्त्रार्थ कर गया और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया।
यह पूछा गया कि तू क्या करेगा? बालक ने सिखा-सिखाया उत्तर दिया कि मैं लोकसेवा करूँगा। सभा ‘वाह वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था।
एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे, वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें, यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पुस्तक माँगता है।
बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दिख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ़ कर नकली परदे के हट जाने से स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘लड्डू!’
पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरी सांस घुट रही थी। अब मैंने सुख की साँस भरी। उन सब ने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था, पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह ‘लड्डू’ की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की आलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।